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मरणकण्डिका - २०१
अर्थ- जो अज्ञ क्षपक अपने दोषों को न कह कर ही गुरु से अपनी शुद्धि कराना चाहता है वह मृगमरीचिका से जल चाहता है या चन्द्रबिम्ब से अन्न चाहता है; ऐसा मैं मानता हूँ ।। ६१८ ।।
इस प्रकार छन्न दोष का वर्णन पूर्ण हुआ ॥ ९ ॥ ७. शब्दाकुलित दोष
शब्दाकुले चतुर्मास - पक्ष-वर्ष - क्रियादिने । यथेच्छं पुरतः सूरेरालोचयति योऽधमः || ६१९ ॥
अव्यक्तं वदतः स्वस्य, दोषान्संक्लिष्ट - चेतसः । आलोचनागतो दोष:, सप्तमः कथितो जिनैः ॥६२० ॥
अर्थ - चातुर्मासिक, पाक्षिक और वार्षिक प्रतिक्रमण क्रिया के दिन जब सब साधुजन अपने दोष कह रहे हों उस कोलाहल में जो अधम क्षपक अपनी इच्छानुसार गुरु के आगे अपनी आलोचना करता है, अपने दोषों को अव्यक्त रीत्या संक्लिष्ट मन से कहनेवाले क्षपक की उस आलोचना में होनेवाला सातवाँ शब्दाकुलित दोष होता है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ।। ६१९-६२० ।।
अरगर्तघटीयन्त्र- समां भित्र घटोपमाम् ।
धुंद - रज्जु - निभामेनां, शुद्धिं शुद्धिविदो विदुः ॥ ६२१ ॥
इति शब्दाकुलो दोषः ॥
अर्थ- शुद्धि को जाननेवाले गणधरादि देव ऐसो शुद्धि को रहट के घटीयन्त्र में लगे हुए घट के समान या फूटे घड़े के समान या चुंदरज्जू के समान मानते हैं ।। ६२१ ||
प्रश्न- घटीयन्त्र, भग्न घट एवं चुन्दरज्जू का क्या अर्थ है और यहाँ इनके दृष्टान्त क्यों दिये गये हैं?
उत्तर - जैसे रहट या अरघट में लगी हुई पानी भरने की घटिकाएँ जल से भरती जाती हैं और तत्काल खाली होती जाती हैं अथवा फूटे घड़े में ऊपर से जल भरते जाने पर भी नीचे से निकलता जाता है । अथवा चुन्दरज्जू अर्थात् काष्ठ में छिद्र करने वाले बर्मा को घुमाते समय उसमें बँधी रस्सी एक ओर से खुलती जाती है और तत्काल ही दूसरी ओर से बँधती जाती है। उसी प्रकार वह आलोचना करनेवाला अधम मुनि है। वह अपने मुख से अपराध प्रगट करने के लिए प्रवृत्त हुआ भी अप्रवृत्त ही है, क्योंकि शब्दाकुलित दोषयुक्त आलोचना करनेवाले क्षपक के मुख से दोष कहा जा रहा है, अर्थात् अपराध खुल रहा है किन्तु "आचार्य मेरे दोषों को पूर्णतया एवं यथावत् न सुन पायें" ऐसी माया मन में होने से वह माया अपराध: पुनः कर्मबंध कर रहा है।
इस प्रकार शब्दाकुल दोष का कथन पूर्ण हुआ । ८. बहुजन दोष
भूरि- भक्तिभरा नम्रः, सूरि- पादाम्बुज- द्वयम् । प्रणम्य भाषते कश्चिद्दोषं सर्वं विधानतः ||६२२ ॥