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मरणकण्डिका - १९८
३. यद् दृष्ट दोष परैः सूचयते दृष्टमदृष्टं या निगृहति ।
महादुःखफला तेन, मायावल्ली प्ररोप्यते।।६०३।। अर्थ - लो अपरा दमों से देख लिाग है इसकी आलोचना तो गुरु के समक्ष कर देता है और जो दोष दूसरों ने नहीं देखा उसे छिपा लेता है, ऐसे क्षपक द्वारा महादुखरूप फलवाली माया बेल रोपी जाती है अर्थात् उस मायावी को महान् कष्ट भोगना पड़ता है ।।६०३ ।।
यदि दृष्टमदृष्टं च, नालोचयति दूषणम् ।
तदास्त्यालोचना-दोषास्तृतीयो दोष-वर्धकः ॥६०४ ।। अर्थ - दूसरों के द्वारा देखे गये अथवा न देखे गये अपराधों को यदि आचार्य के समीप नहीं कहता है तो वह दोषों को वृद्धिंगत करनेवाला आलोचना का तीसरा दोष है ॥६०४॥
दोष-शुद्धिरपचेतसा पुनः, कल्मषैरिति कृता निधीयते । वालुकासु रचितोऽवट: पुनर्वालुकाभिरभितो हि पूर्यते ॥६०५॥
इति यद् दृष्टम्॥ अर्थ - जैसे रेत के मध्य में गड्ढा खोदने पर वह गड्डा खोदते-खोदते ही रेत से पुनः भरता जाता है, उसी प्रकार 'मैं दोषों की शुद्धि करता हूँ' ऐसा विचार कर आलोचना में उद्यत अदृष्ट दोष छिपाने की माया रूप कल्मष द्वारा वह नष्टबुद्धि क्षपक उसी दोष को पुनः करता है। अर्थात् मायाशल्य को दूर करने हेतु साधु आलोचना करता हुआ भी अन्य माया से अपनी आत्मा को आच्छादित कर लेता है।६०५।।
इस प्रकार यदृष्ट दोष का कथन पूर्ण हुआ।
४. बादर दोष स्थूलं व्रतातिचारं यः, सूक्ष्म प्रच्छाद्य जल्पति ।
पुरुतो गणनाथस्य, सोऽर्हद्वाक्यबहिर्भवः ॥६०६॥ अर्थ - व्रतों में लगे हुए दोषों में से जो क्षपक अपने गुरु के समक्ष मात्र स्थूल दोषों की तो आलोचना करता है और सूक्ष्म दोषों को छिपा लेता है, वह साधु जिनागम से विमुख होता है॥६०६ ।।
न चेद्दोषं गुरोरने, स्थूलं सूक्ष्मं च भाषते।
विनयेन तदा दोषश्चतुर्थः कथनाश्रयः ।।६०७॥ अर्थ - यदि साधु विनयपूर्वक गुरु के सम्मुख सूक्ष्म एवं बादर दोषों को नहीं कहता है तो यह आलोचना का चतुर्थ दोष है।।६०७॥
बायाकारेणातिशुद्धोऽपि साधुर्नान्त: शुद्धिं याति मायादि-शल्यः। भृङ्गारो वा कांसिकः शोध्यमानो, बाह्ये शुद्धिं कश्मलान्तः प्रयाति ॥६०८॥
इति बादरदोषः॥