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मरणकण्डिका - १९६
कश्चित् क्रीत्वा विषं भुक्ते, नरो मत्वाहितं हितम् ।
जीवितार्थी यथा मूर्खस्तथेयं शुद्धिरिष्यते ॥५९४ ।। अर्थ - जैसे जीवितार्थी कोई पुरुष यदि विष खरीद कर खाता है और उस अहित को ही अपना हित मानता है तो वह मूर्ख कहा जाता है। वैसे ही मायाचार पूर्वक आलोचना कर रत्नत्रय की शुद्धि का वांछार्थी मूर्ख है ।।५९४ ।।
प्रश्न - मायाचार पूर्ण आलोचना को खरीदे हुए विष को खाने वाले की उपमा क्यों दी गई है?
उत्तर - जैसे जीवित रहने का अभिलाषी पुरुष विष खरीद कर खाता है और उसी में अपना हित समझता है, उसी प्रकार भक्त-पान या उपकरण देकर अथवा बन्दना आदि विनय द्वारा गुरु को खरीद कर आगम की उपेक्षा करते हुए अपनी बुद्धि से क्षपक द्वारा छल-कपटयुक्त की हुई आलोचना रत्नत्रय की शुद्धि कदापि नहीं कर सकती। वह आलोचना तो विषपान के सदृश है।
मधुगलोचनैषादौ विगळे सेवता प्रती।
तीवं करोति किम्पाकफल-भुक्तिरिवासुखम् ॥५९५॥ अर्थ - जैसे किम्पाकफल देखने में सुन्दर और खाने में मधुर लगता है, किन्तु वह विपाक काल में अर्थात् पचनक्रिया काल में मरण का दुख उत्पन्न करता है, वैसे ही अनुकम्पित दोषयुक्त की गई आलोचना प्रारम्भ में मधुर लगती है (क्योंकि अल्प प्रायश्चित्त मिलने की आशा है) किन्तु विपाक काल में अर्थात् आगामी भवों में तीव्र दुख उत्पन्न करती है ।।५९५ ।।
रक्तस्य कृमिरागेण, शुद्धिाक्षा-रसेन वा । वस्त्रस्य जायते जातु, नैषा शुद्धिः पुनर्भुवम् ॥५९६ ॥
इति अनुकम्पा-दोषः॥ अर्थ - कृमिरंग से रंगे हुए वस्त्र का अथवा लाक्षा रस से रंगे हुए वस्त्र का शुद्ध अर्थात् सफेद हो जाना कदाचित् सम्भव है किन्तु अनुकंपित दोष युक्त की गई आलोचना से रत्नत्रय की शुद्धि होना निश्चयत: असम्भव है।।५१६ ॥
प्रश्न - कृमिराग रंग किसे कहते हैं ?
उत्तर - कृमिराग से रंगे वस्त्र की तीन परिभाषाएँ आगम में प्राप्त होती हैं। यथा - १. कीड़ों द्वारा खाये गये भोजन के रंग में रंगे गये धागों से बने वस्त्र कृमिराग वस्त्र है। २. कृमि द्वारा त्यागे गये रक्ताहार से रंजित तन्तुओं से बने वस्त्र । ३. म्लेच्छ देश में जोंकों द्वारा मनुष्य का रक्त निकाल कर बर्तनों में भर दिया जाता है। कुछ दिनों में उसमें कृमि उत्पन्न हो जाते हैं। उन कृमियों से धागे रंग कर वस्त्र बनाये जाते हैं। यह अत्यन्त लाल होता है और आग में जलाने पर भी वह कृमिराग नहीं जाता। .
इस प्रकार अनुकम्पित दोष का वर्णन समाप्त हुआ ।।