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मरणकण्डिका - १९४
अर्थ - उपर्युक्त स्थानों के सदृश अन्य भी कोई प्रशस्त स्थान हों, वहाँ जाकर निर्यापकाचार्य क्षपक की संक्लेशरहित शुद्ध आलोचना सुनते हैं ।।५८८ ॥
आचार्य इस प्रकार स्थित होकर आलोचना ग्रहण करते हैं जिनार्चाया दिशः प्राच्या, कौधेर्या वा स सन्मुखम् ।
शृणोत्यालोचनां सूरिरेकस्यैको निषण्णवान् ।।५८९ ।। अर्थ - जिनमन्दिर की ओर या पूर्व दिशा की ओर या उत्तर दिशा की ओर मुख करके सुखपूर्वक बैठकर अकेले एक ही आचार्य एक समय में एक ही क्षपक की आलोचना सुनते हैं ।।५८९ ।।
प्रश्न - समाधि इच्छुक क्षपक की आलोचना किस काल में, किस स्थान पर, कैसे स्थित होकर और किस भाव से सुनी जाती है ?
उत्तर - पूर्वोक्त प्रकार शुभ लग्न, शुभ वार, सौम्य तिथि और शुभ नक्षत्र आलोचना हेतु शुभ काल है। जिनमन्दिर, मनोहर उद्यान, स्वच्छ जल एवं कमलों से परिपूर्ण सरोवर के या समुद्र के या नदी के तट अथवा अन्य भी प्रशस्त स्थान आलोचना हेतु शुभ स्थान हैं। पूर्व दिशा अन्धकार को दूर करने में तत्पर सूर्य के उदय की दिशा है, सूर्योदय के सदृश आराधना शल्यादि अन्धकार को नष्ट करती हुई प्रकाशमान एवं उन्नत होती जाय इस अभिप्राय से आचार्य पूर्वाभिमुख बैठे या क्षपक को पूर्वाभिमुख बिठा लें। इस प्रकार पूर्वाभिमुख बैठना, क्षपक पर अनुग्रह करने के कार्य की सिद्धि का अंग है। विदेहक्षेत्र उत्तर में है, अत: विदेहक्षेत्र में स्थित सीमन्धर आदि तीर्थंकरों को चित्त में स्थापित करके उनके सम्मुख होने से कार्य की सिद्धि होती है, इस भावना से आचार्य उत्तराभिमुख बैठे या क्षपक को उत्तराभिमुख बैठावें। जिनमन्दिर या जिनप्रतिमा के अभिमुख बैठना, साक्षात् शुभ परिणामों का कारण होने से कार्यसिद्धि का अंग है। बैठकर एकाग्रता पूर्वक आलोचना सुनना, आलोचना करने वाले का सम्मान है। जिस किसी प्रकार से बैठ कर या खड़े-खड़े या लेट कर आलोचना सुनना आगमविरुद्ध है, इससे क्षपक के प्रति आदर भाव प्रगट नहीं होता, जिससे क्षपक का उत्साह भंग हो जाता है।
क्षपक की आलोचना अकेले एक ही आचार्य को सुननी चाहिए। बहुतों के बीच आलोचना करने में अर्थात् अपने दोष कहने में लज्जा आ जाने की सम्भावना रहती है क्योंकि लज्जालु क्षपक अपने पूर्ण दोष नहीं कह सकेगा। सबके सामने दोष कहने में उसके चित्त को खेद भी उत्पन्न हो सकता है। अनेक क्षपकों द्वारा एक साथ, एक ही समय में कहे गये दोष आचार्य एक साथ अवधारण नहीं कर सकता, अतः एक आचार्य और एक ही क्षपक होना चाहिए।
यदि समाधि के लिए उद्यत किसी आर्यिका को आलोचना करना है तो आचार्य के निकट एक मुनिराज और हों अथवा आलोचक आर्यिका के साथ उनकी गणिनी आर्यिका या अन्य कोई आर्यिका अवश्य होनी चाहिए क्योंकि भिन्नलिंगी किन्हीं दो का एकान्त में बैठना या बात करना आगमविरुद्ध है। आचार्य को क्षपक की आलोचना तत्परता से एकाग्रतापूर्वक सुननी चाहिए, अन्यथा क्षपक आलोचना करने में निरुत्साह हो जायेगा कि ये गुरु मेरी अन्तिम आलोचना भी ठीक से नहीं सुनते, इन्हें मैं क्या दोष कहूँ ? क्षपक भी उस समय लज्जा, भय, माया और रागद्वेष आदि छोड़कर आलोचना करे। यह उसकी भावशुद्धि है। इस प्रकार शुभ काल एवं शुभ स्थान में प्रसन्नचित्त आचार्य एकाकी बैठकर निर्मल परिणामी क्षपक की आलोचना सुनते हैं।