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मरणकण्डिका - १९२
मुक्त-शल्य-ममत्वोऽसावेकत्वं प्रतिपद्यते ।
शापियामि, पादमूले गणेशिनः ।।५७७ ।। अर्थ - "मैं आचार्यदेव के पादमूल में शल्य को उखाड़ कर फेंक दूंगा।" ऐसा संकल्प करता हुआ क्षपक शल्य एवं ममत्व भाव को छोड़ कर एकत्व भाव को प्राप्त हो जाता है ।।५७७॥
इत्येकत्व-गतः कृत्स्नं, दोषं स्मरति यत्नतः।
इत्थं स प्राञ्जलीभूय, सर्व संस्मृत्य दूषणम्॥५७८ ॥ अर्थ - इस प्रकार एकत्व भावनामय होकर क्षपक सम्यक् प्रयत्नपूर्वक अपने सर्व दोषों का स्मरण करता है। इस प्रकार सरल अर्थात् निश्छल भाव को प्राप्त होता हुआ वह क्षपक पुन:पुनः अपने दोषों का स्मरण करता है ।।५७८ ।।
प्रश्न - एकत्वभावमय होने का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर - क्षपक चिन्तन करता है कि अहो ! मैं तो केवलज्ञान और केवलदर्शन स्वभाव वाला हूँ। यह मेरा शरीर, रागद्वेष, भाव शल्य, गारव और मान-अपमान की वृत्तियाँ ये सब विकार मेरे नहीं हैं कारण कि ये सब मेरे चैतन्य स्वभाव से भिन्न हैं। इस शरीर के नाश से और दोषों की आलोचना में होने वाले मान-अपमान से मेरा कुछ भी बिगड़नेवाला नहीं है, अतः मैं तो अब सब प्रकार से माया छोड़कर बालकवत् सरल हृदय से आलोचना करूँगा। ऐसा संकल्प करता हुआ क्षपक अपने दोषों का एकाग्रता पूर्वक स्मरण करता है कि मेरे किस व्रत या नियम में कब, कैसे और कौन-कौन से दोष हुए हैं।
एति शल्यं निराकर्तुं, सर्वं संस्मृत्य दूषणम्।
आलोचनादिकं कर्तुं, युज्यते शुद्ध-चेतसः॥५७९ ।। अर्थ - आलोचना और प्रतिक्रमणादि क्रियाएँ विशुद्ध परिणामवाले क्षपक के द्वारा ही सम्भव हैं, अतः सब दोषों का भली प्रकार स्मरण कर वह क्षपक शल्य निवारण हेतु गुरु के निकट जाता है ।।५७९ ।।
__ आलोचना हेतु भाव एवं काल शुद्धि का निर्देश आलोचनादिकं तस्य, सम्भवेच्छुद्ध-भावतः ।
अपराण्हेऽथ पूर्वाह्ने, शुभ-लग्नादिके दिने ॥५८०॥ अर्थ - विशुद्ध परिणामवाले क्षपक की आलोचनादि क्रियाएँ प्रशस्त समय एवं प्रशस्त स्थान में ही सम्भव हैं, अत: आलोचना शुभ दिन के पूर्वाह्न या अपराह्न काल में सौम्य तिथि, शुभ नक्षत्र एवं शुभ लम में होती है। अर्थात् आलोचना करने के लिए शुभ भावों के साथ-साथ क्षेत्रशुद्धि और कालशुद्धि भी आवश्यक है।।५८०॥
अप्रशस्त प्रदेश आलोचना करने योग्य नहीं होते निःपत्र: कटुकः शुष्क-पादपः कण्टकाचितः। विच्छाय: पतितः शीणों, दष-दग्धस्तडितः ।।५८१।।