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मरणकण्डिका - १९०
प्रश्न - रत्नत्रय में लगे अतिचारों की आलोचना तत्काल करने की प्रेरणा क्यों दी जा रही है? दोचार दिन बाद आलोचना करने से क्या हानि है ?
उत्तर - रत्नत्रय में अतिचार लग जाने पर उसी क्षण उसका शोधन उसी प्रकार कर लेना चाहिए जैसे आँख में प्रवेश करनेवाले रज-कण का शोधन तत्काल कर लिया जाता है। व्याधि, शत्रु और कर्म, इनकी यदि उपेक्षा की जाय तो इनकी जड़ जम जाती है फिर सहज ही इनका विनाश होना सम्भव नहीं होता। रत्नत्रय में लगे हुए अतिचारों की आलोचना मैं कल, परसों या अन्य किसी भी दिन कर लूंगा, ऐसा संकल्प करनेवाले क्षपक या साधु प्रतिक्षण व्यतीत होनेवाले अपने आयुकर्म को नहीं जानते कि कब मृत्यु आ जायेगी और मैं बिना आलोचना किये ही मर जाऊँगा तथा दुर्गति में जाऊँगा।
जिस समय दोष लगता है उस समय आत्मा में पश्चाताप रूप एक विशेष प्रकार का संवेदन होता है एवं ग्लानि होती है, अत: उसी समय यथार्थ आलोचना हो सकती है। समय व्यतीत हो जाने पर वे भाव नहीं रहते और अतिचार लगने के कारण, उसका समय एवं क्षेत्र आदि भी विस्मृत हो जाते हैं, अत: गुरु के पूछने पर भी पूर्णरीत्या नहीं कह पाते। अथवा अचानक मृत्यु आ जाने पर या वाणी का सामर्थ्य न रहने पर चारित्र की शुद्धि किये बिना ही मरण करना पड़ता है।
रागद्वेषादिभिर्भग्ना, ये नियन्ते सशल्यकाः ।
दुःख शल्याकुले भीमे, भवारण्ये भ्रमन्ति ते ॥५६८॥ ___ अर्थ - रागद्वेष से पीड़ित जो मूढ़ मुनि शल्य सहित मरते हैं वे दुखरूपी शल्यो अर्थात् काँटों से भरे संसाररूपी वन में भटकते हैं ।।५६८॥
शल्य निकाल कर मरण करने में गुण हैं उद्धृत्य कुर्वते कालं, भावशल्यं त्रिधापि ये।
आराधनां प्रपद्यन्ते, ते कल्याण-वितारिणीम् ॥५६९ ॥ अर्थ - पूर्वोक्त तीन प्रकार की भाव शल्यों को निकाल कर जो साधु मरण करते हैं वे कल्याण परम्परा को देनेवाली आराधनाओं को प्राप्त होते हैं ।।५६९ ।।
सम्यक्त्व-वृत्त-नि:शल्या, दूरोत्सारित-गौरवाः ।
विहरन्ति विसगा ये, कर्म सर्वं धुनन्ति ते ।।५७०।। अर्थ - जो तीन प्रकार के गारव और तीनों प्रकार की भाव शल्यों से रहित हैं और नि:संग अर्थात् सर्व परिग्रह का त्याग कर सम्यग्दर्शन एवं सम्यक्चारित्र में ही विहार करते हैं वे साधुजन सर्व कर्मों को नष्ट कर देते हैं।॥५७०।।
इति ज्ञात्वा महालाभं, निःशल्यीभूत-चेतसाम् ।
शुद्ध-दर्शन-चारित्रो, विहरस्वापशल्यकः ॥५७१॥ अर्थ - आचार्यदेव क्षपक को समझा रहे हैं कि हे क्षपक ! निरतिचार अर्थात् निःशल्य चित्त से रत्नत्रय