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मरणकण्डिका - १९५
क्षपक की आलोचना का क्रम
कृत्वा त्रिशुद्धिं प्रतिलिख्य सूरिं, प्रणम्य मूर्धस्थित-पाणिपद्मः। आलोचनामेष करोति मुक्त्वा, दोषानशेषानपशल्य-दोषः॥५९०॥
इति आलोचना ॥२३॥ अर्थ - आलोचना हेतु बैठने के स्थान का विधिवत् प्रतिलेखन कर, पीछी के साथ हाथों की अंजुलि को मस्तक से लगा कर, मन, वचन और कार्य का शुद्धिपूर्वक सर्वप्रथम गुरु को कृतिकर्मपूर्वक नमस्कार करके क्षपक शल्यादि समस्त दोषों को छोड़कर आलोचना करता है ।।५९० ।।
इस प्रकार आलोचना-अधिकार पूर्ण हुआ ॥२३॥
२४. गुण-दोष-अधिकार आलोचना करते समय जो दोष सम्भव हैं, उनका क्रम अनुकम्प्यानुमान्यं हि, यदृष्टं स्थूलमन्यथा।
छन्नं शब्दाकुलं भूरि, सूर्यव्यक्तं च तत्समम् ॥५९१॥ अर्थ - आलोचना के दस दोष हैं - अनुकंपित, अनुमानित, यदृष्ट, स्थूल, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त और तत्सेवी ।।५९१ ।।
१. अनुकंपित दोष का निर्देश सूरिं भक्तेन पानेन, प्रदानेनोपकारिणा।
विनयेनानुकम्प्य स्वं, दोषं वदति कश्चन ।।५९२ ।। अर्थ - स्वयं भिक्षालब्धि से युक्त होने के कारण आचार्य को उद्गमादि दोषों से रहित आहार, जलादि पेय एवं उपकरण प्रदान करके अथवा कृतिकर्मपूर्वक वन्दना आदि विनय द्वारा आचार्य के हृदय में अनुकम्पा उत्पन्न करके कोई क्षपक आलोचना करता है ।।५९२॥
आलोचितं मया सर्व, भविष्यत्येष मे गुणम् ।
करिष्यतीति मन्तव्यं, पूर्व आलोचना-मलः ।।५९३ ।। अर्थ - आचार्य को आहारादि से सन्तुष्ट कर एवं विनयादि से दयायुक्त करने पर मेरे द्वारा सर्व आलोचना हो जायेगी, इससे मुझे बहुत लाभ मिलेगा, इस प्रकार के दूषित मानसिक विचारों द्वारा यदि कोई क्षपक आलोचना करता है तो वह आलोचना का अनुकम्पित नाम का प्रथम दोष है ।।५९३ ।।
प्रश्न - ऐसी आलोचना दोषकारक क्यों कही गई है ?
उत्तर - “कठोर से कठोर प्रायश्चित्त करके भी मुझे अपने रत्नत्रय की शुद्धि करनी है" इस प्रकार की उत्कृष्ट भावना की क्षति होने से, "मेरे उपकरण-दान से गुरु मेरे ऊपर सन्तुष्ट हो जावेंगे" गुरु को इतना तुच्छ या लोभी समझने से तथा मायाचार न छोड़ने से ऐसी आलोचना दोषयुक्त कही गई है।