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मरणकण्डिका - १९७
२. अनुमानित दोष का सश्चत धीरैराधारितं धन्याः, कुर्वते दुशरं तपः। दुःखाम्भसो भवाम्भोधेर्दुस्तरात्तारकं परम् ।।५९७ ॥ क्लमापहार-पार्श्वस्थ-सुख-शीलतया तपः।
न प्रकृष्टमलं कर्तृ, वदत्येवमधार्मिकः ॥५९८ ॥ अर्थ - अधार्मिक क्षपक मानों अपनी धार्मिकता दिखाता हुआ आचार्य से कहता है कि हे प्रभो! जिसे धीर- वीर पुरुषों ने किया है, जो दुखरूप जलवाले दुस्तर भवसागर से पार उतारने वाला है ऐसे कठोर तप को जो मुनिजन करते हैं, वे धन्य हैं ।।५९७ ॥
___अपनी शक्ति को छिपाने, पार्श्वस्थ मुनि होने तथा शरीर में सुख-शील होने से वह अधार्मिक कहता है कि - मैं कमजोर हूँ, अत: उत्कृष्ट तप करने में असमर्थ हूँ।।५९८ ॥
पार्श्वस्थत्वमनारोग्यं, दौर्बल्यं वह्नि-मन्दता। भगवस्तव विज्ञाता, मदीयाः सकला: स्फुटम् ।।५९९ ।। आलोचयामि निःशेष, कुरुषे यद्यनुग्रहम्।
त्वदीयेन प्रसादेन, विशुद्धिर्मम जायताम् ।।६००।। अर्थ - हे प्रभो ! मैं पार्श्वस्थ हूँ, मेरा शरीर सदैव रोगी रहता है, शरीर के अंग कृश हैं, मेरी उदरानि अतिशय मन्द है तथा आप भी भली प्रकार जानते हैं कि मैं उत्कृष्ट तप करने में असमर्थ हूँ, अत: यदि आप मुझ पर अनुग्रह करें अर्थात् यदि आप मुझे अल्प प्रायश्चित्त देने की कृपा करें तो मैं अपने सम्पूर्ण अतिचारों की आलोचना करूँगा और आपके प्रसाद से शुद्ध हो जाऊँगा ।।५९९-६०० ।।
कुर्वाणस्यानुमान्येति, सूरिमालोचनां यतेः।
भवत्यालोचना-दोषो, द्वितीयः शल्य-गोपकः ।।६०१।। अर्थ - इस प्रकार आचार्य मुझे अल्प प्रायश्चित्त देंगे' ऐसा अनुमान कर आलोचना करनेवाले क्षपक मुनि के शल्य का गोपन अर्थात् मायाभाव रखनेवाला दूसरा अनुमानित नामक दोष होता है ।।६०१ ।।
सेव्यमानो यथाहारो, विपाके दुःखदायकः। अपथ्यः पथ्यशेमुष्या, तथेयं शुद्धिरीरिता ॥६०२॥
इति अनुमान्य दोषः।। अर्थ - जैसे सुख का इच्छुक मनुष्य अपनी बुद्धि से अपथ्य भोजन को पथ्य अर्थात् गुणकारक मानता हुआ सेवन कर लेता है तथापि वह विपाक में दुखदायक ही होता है; वैसे ही अनुमान से गुरु के अभिप्राय को जान कर अथवा कम प्रायश्चित्त का आश्वासन लेकर आलोचना करनेवाले की आलोचना विपाक काल में दुखदायक ही होती है, क्योंकि संकल्प मात्र से अपथ्याहार पथ्य नहीं हो जाता है।६०२॥
इस प्रकार अनुमानित दोष का कथन हुआ॥