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मरणकण्डिका - ८४
अर्थ - तप आदि भावनाओं के भेद-प्रभेदों से युक्त है ऐसी छठी भावना द्वारा विधिपूर्वक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का शोधनकर साधुजन चिरकाल पर्यन्त विहार करें।।२१०॥
इस प्रकार भावना अधिकार पूर्ण हुआ ॥१०॥
॥ भक्तप्रत्याख्यानमरण का अर्ह आदि अधिकार पूर्ण हुआ ।।
(४) सहलेखनादि अधिकार भावनाओं के साथ सल्लेखनाधिकार का सम्बन्ध दर्शन साधुः सल्लेखनां कर्तुमित्थं भाषित-मानसः।
तपसा यतते सम्यक्, बाहोनाभ्यन्तरेण च ॥२११॥ अर्थ - उपर्युक्त प्रकार की तप आदि भावनाओं से भावित मनवाला साधु बाह्य और अभ्यन्तर सम्यक्तपों के द्वारा सल्लेखना करने में प्रयत्नशील होता है ।।२११ ॥
सल्लेखना के भेद सल्लेखना द्विधा साधोरन्तरानन्तरेण्यते ।
तत्रान्तरा कषायस्था, द्वितीया काय-गोचरा ॥२१२।। अर्थ - अभ्यन्तर और बाह्य के भेद से सल्लेखना दो प्रकार की होती है। इनमें साधु की कषाय मल्लेखना अभ्यन्तर और दूसरी काय-सल्लेखना बाह्य सल्लेखना कही जाती है।।२१२॥
प्रश्न - कषाय और काय सल्लेखनाओं के क्या लक्षण हैं?
उत्तर - आत्मभावना एवं शुभ भावनाओं द्वारा कषायों को निरन्तर कृश, कृशतर और कृशतम करते जाना कषायसल्लेखना है, इसे ही अभ्यन्तर सल्लेखना कहते हैं। मोक्षमार्ग में यही सल्लेखना प्रयोजनभूत है। नाना प्रकार के तपों द्वारा उत्तरोत्तर शरीर को कृश करते जाना कायसल्लेखना है। इसे ही बाह्य-सल्लेखना कहते हैं। यह बाह्य सल्लेखना अभ्यन्तर सल्लेखना की सहायक है और अनशन आदि बाह्य तप, काय सल्लेखना के सहायक हैं।
बाह्य तप के भेद अभुक्तिरवमोदर्य, वृत्तिसंख्या-रसोज्झनम्। कायक्लेशो विविक्ता च, शय्या षोढा बहिस्तपः ।।२१३ ।।