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मरणकण्डिका - १५४
का त्याग कर सकता है, गुरुभक्ति से ओत-प्रोत है और विनीत है, वहीं व्रतों को धारण करने का पात्र है। ऐसे योग्य मुमुक्षु भव्य जीवों को पाँच महाव्रत और पाँच समिति आदि व्रों से सम्पन्न कर देना व्रतारोपण अर्हत्व स्थितिकल्प है। पाँच महाव्रतों की निर्दोष पालना हेत रात्रिभोजन त्याग नामक छठे व्रत का भी पालन करना चाहिए। अहिंसा' व्रत का विषय सम्पूर्ण जीवराशि है। अर्थात् इस व्रत में सब जीवों की हिंसा का त्याग किया जाता है। अचौर्य महाव्रत और अपरिग्रह महाव्रत का विषय सम्पूर्ण द्रव्य है क्योंकि जिसका कोई स्वामी है ऐसा कोई भी द्रव्य बिना दिये ग्रहण नहीं करना ही अचौर्य-महाव्रत है। सर्वद्रव्य का त्याग करना ही पाँचवाँ महाव्रत है। शेष दो महाव्रत द्रव्यों के एकदेश को विषय करते हैं।
प्रश्न - दो महाव्रत द्रव्यों के एकदेश को विषय करते हैं, ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तर - इसका कारण ग्रन्थ में नहीं दिया गया है किन्तु चिन्तन से ऐसा अनुभव हो रहा है कि सब द्रव्यों का यथार्थ और प्रत्यक्ष जानना केतलज़ान का विषय है। यहाँ क्षयोपशम ज्ञान है, अत: सब द्रव्य ग्रहण नहीं किये गये हैं, इतना अवश्य है सत्यमहाव्रती साधु बुद्धिपूर्वक नौ कोटि से असत्य-भाषण का त्याग करता
शील के अठारह हजार गुण चौदहवें गुणस्थान में पूर्ण होते हैं। सम्भवत: इसी कारण ब्रह्मचर्य महाव्रत का विषय भी द्रव्य का एकदेश कहा गया है।
७. ज्येष्ठ स्थितिकल्प - संग्रह, उपकार और रक्षा करने के सामर्थ्य को पुरुषत्व कहते हैं । यह पुरुषत्व पुरुष में होता है, धर्मप्रवर्तन पुरुष के द्वारा होता है तथा पुरुषार्थ के अन्तिम फल मोक्ष को भी पुरुष ही प्राप्त करता है, अत: चिरकाल से दीक्षित और पाँच महाव्रतों की धारी आर्यिका से तत्काल का दीक्षित भी पुरुष ज्येष्ठ होता है। इसलिए सब आर्यिकाओं को साधु की विनय करनी चाहिए। अथवा चारित्रादि की विशिष्टता के कारण मुनि समुदाय में आचार्य की ज्येष्ठता होती है।
८. प्रतिक्रम स्थितिकल्प - अचेलता आदि स्थितिकल्पों में दोष लग जाने पर साधु को प्रतिक्रम करना चाहिए। दैवसिक, रात्रिक, इत्तिरिय अर्थात् ईपिथिक भिक्षाचर्या, पाक्षिक, चातुर्मासिक, साम्वत्सरिक
और उत्तमार्थ के भेद से प्रतिक्रमण के सात भेद हैं। आदिनाथ और महावीर स्वामी के तीर्थगत साधुओं को प्रतिक्रमण प्रतिदिन करना ही चाहिए. ऐसा आगम का उपदेश है।
९. मासैकवासिता स्थितिकल्प - वसन्त आदि ऋतुओं में से प्रत्येक ऋतु में एक मास पर्यन्त मुनि एक स्थान पर निवास कर सकते हैं और एक माह विहार करते हैं। एक ही स्थान पर चिरकाल तक रहने से उद्गमादि दोषों का परिहार अशक्य हो जाता है, वसतिका पर और भक्तों पर प्रेम हो जाता है, सुख में लम्पटता हो जाती है, आलस्य भर जाता है, सुकुमारता आ जाती है और जिन श्रावकों के यहाँ पूर्व में आहार हो चुका है पुनरपि वहाँ-वहाँ ही आहार लेना पड़ता है। १. पढमम्मि सव्वजीवा, तदिये परिये य सव्व-दव्वाई।
सेसा महव्चदा खल. तदेकदेसम्मेि दवाणं ।। भगवती आ. पृष्ठ ३३१।। २. पञ्चमहाव्रतधारिण्याश्चिरप्रव्रजिताया........। भगवती आ. पृष्ठ ३३१ ।।