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मरणकण्डिका - १५८
धारण करना ये सब उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं। अर्थात् कभी एक मिलता है तो दूसरा नहीं, दूसरा मिला तो तीसरा नहीं, एक साथ सबके सब योग मिलना अतिदुष्कर कार्य है। इस प्रकार क्षपक मुनिराज को जो संयम प्राप्त हुआ है वह अत्यधिक कठिनाई से प्राप्त हुआ है, अत: उसका रक्षण अत्यावश्यक है।
बहु-दुर्लभ-सन्तत्या, साधुलब्ध्वापि संयमम्।
लभते नाज्ञ-सान्निध्ये, देशनां धृति-वर्द्धनीम् ।।४५० ।। अर्थ - इस प्रकार उस क्षपक साधु को अतिदुर्लभ परम्परा से संयम की प्राप्ति हुई है फिर भी यदि किसी अज्ञानी निर्यापक का सान्निध्य प्राप्त हो गया तो उसे धैर्य को वृद्धिंगत करनेवाला उपदेशामृत प्राप्त नहीं हो सकता॥४५० ॥
प्रपाल्यापि चिरं वृत्तमश्रुताधार-सन्निधौ ।
अलब्ध-नेशनो पत्यकाले प्रभंशाने नतः॥४५१॥ अर्थ - और जिसे धर्मोपदेश नहीं मिला ऐसा वह क्षपक श्रुतज्ञान से रहित अर्थात् अज्ञानी निर्यापक के निकट मृत्युकाल में अपना चिरकाल से पालित चारित्र नष्ट कर देता है।४५१ ।।
दोषेभ्यो वार्यते दुःखं, संन्यस्त: क्रियते सुखम् ।
छिद्यते सुखतो वंशः, कृष्यते दुःखतस्ततः॥४५२॥ __ अर्थ - समाधि में उद्यत उस क्षपक को सदुपदेश के द्वारा ही दोषों से रोका जा सकता है और उससे ही उसका शारीरिकादि दुख भुलाकर सुखी किया जा सकता है। जैसे अंकुर रूप छोटा बाँस सुख से उखाड़ा जा सकता है किन्तु बड़ा हो जाने पर वह दुख से-कठिनाई से उखड़ता है।४५२।।
प्रश्न - आचार्यदेव बाँस के दृष्टान्त से क्या शिक्षा देना चाहते हैं?
उत्तर - आचार्यदेव कह रहे हैं कि जैसे बाँस के समुदाय में से एक छोटे बाँस को छेद कर निकाल लेना सुलभ है किन्तु उसको उखाड़ लेना बहुत कठिन है। वैसे ही भूख-प्यास आदि की वेदना के समय क्षपक के मन को पंचेन्द्रियों के विषयों से निकाल कर संयम में स्थापन करना कठिन है। यद्यपि क्षपक ने ही रागद्वेष का नाश या शमन करने की प्रतिज्ञा की थी, तथापि सल्लेखना के अन्तर्गत होनेवाले क्षुधादि परीषहों से पीड़ित एवं अल्पशक्ति-धारक उस क्षपक के मन को श्रुतज्ञान में एकाग्र न कर सकने के कारण अज्ञानी निर्यापक उसकी चारित्राराधना में सहयोगी नहीं हो सकता। अर्थात् अज्ञानी आचार्य के सान्निध्य में रहनेवाला क्षपक उपदेश के अभाव में संक्लेश को प्राप्त होता हुआ संयम का घात कर देता है।
अयमन्नमयो जीवस्त्याज्यमानत्वसौ कदा।
आर्तरौद्राकुलीभूतश्चतुरने न वर्तते ॥४५३॥ अर्थ - यह जीव अत्रमय है, मानों अन्न से उत्पन्न हुआ है क्योंकि अन्न ही प्राणरक्षण का मूल है। क्षपक ऐसे अन्न का त्यागी है। उस समय कभी-कभी क्षपक आर्त-रौद्र ध्यान से आकुलित होता हुआ चारों आराधनाओं रूप वर्तन नहीं कर पाता ।।४५३ ।।