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मरणकण्डिका- १६३
वापिस भेजते हैं तब वह आज्ञा प्रायश्चित्त होता है। अर्थात् किन्हीं आचार्य को कोई दोष लग गये किन्तु वे शक्ति या समयाभाव के कारण अन्य आचार्य के समीप नहीं जा पाते तब वे अपने ज्येष्ठ शिष्य को दोषों का विवरण देकर अन्य आचार्य के समीप भेज देते हैं। वहाँ जाकर वह शिष्य गुरु के अभिप्रायानुसार सब बात कह देता है और जो प्रायश्चित्त वे देते हैं उसे गुरु से कह देता है । यह आज्ञा प्रायश्चित्त है।
ग्यारह अंगों में कहे गये प्रायश्चित्त को आगम प्रायश्चित्त कहते हैं।
कारणवशात् एकाकी रहनेवाले कोई आचार्य या साधु जंघाबलादि क्षीण हो जाने से जब अन्यत्र नहीं जा पाते तब वे पूर्व में सुनी, देखी या अनुभव में आई हुई प्रायश्चित्त विधि के अनुसार जो प्रायश्चित्त ग्रहण करते हैं उसे धारणा प्रायश्चित्त कहते हैं ।
प्रायश्चित्त देने को विधि
द्रव्यं क्षेत्रं परिज्ञाय, कालं भाव- - कृतोद्यमम् । सम्यक् संहननमुत्साहं, पर्यायं पुरुषं श्रुतम् ॥ ४६७ ।।
अर्थ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, उद्यमशीलता, संहनन, उत्साह, पर्याय,
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विचार कर आचार्य को प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥४६७ ॥
पुरुष
और श्रुतज्ञान का
प्रश्न द्रव्य, क्षेत्र आदि का परिज्ञान कैसे करना चाहिए ?
उत्तर - साधुजन अपने गृहीत महाव्रतादि में अतिचार लग जाने पर प्रायश्चित लेते हैं। आचार्य परमेष्ठी द्रव्य, क्षेत्रादि परिस्थितियों को जानकर ही प्रायश्चित्त देते हैं। सचित्त, अचित्त एवं मिश्र के भेद से द्रव्य तीन प्रकार का है। साधु को त्रस स्थावर जीवों के अर्थात् सचित्त द्रव्य के या तृण, फलक आदि अचित्तद्रव्य के या शास्त्र, पीछी, कमण्डलु युक्त साधु के आश्रयों में से किस कारण दोष लगे हैं, यह ज्ञान होना आवश्यक है, तथा उन्हें आहार के पदार्थों का ज्ञान होना भी आवश्यक है। कोई आहार रस- बहुल, कोई धान्य- बहुल, कोई शाक - बहुल, कोई मात्र हलुआ एवं लपसी तथा शाक मात्र या पानक मात्र आहार होता है। इस आहार के दोषी साधु की प्रकृति जान कर ही उसे आहार सम्बन्धी प्रायश्चित्त देना चाहिए ।
वर्षा ऋतु में अर्ध कोस अथवा अर्ध योजन जाना ही शास्त्रसम्मत है। उससे अधिक क्षेत्र में जाना, या वर्जित क्षेत्र में जाना, या विरुद्ध राज्य में जाना, या टूटे-फूटे मार्ग से जाना, उन्मार्ग से जाना, अन्तःपुर में प्रवेश कर जाना तथा वर्जित गृहभूमि में जाना दोष है। साथ ही जलबहुल या रुक्ष आदि क्षेत्र सम्बन्धी जो दोष हुए हों उन्हें जान कर प्रायश्चित्त देना ।
गर्मी, सर्दी, वर्षा के समय का ध्यान न रखना, छह आवश्यक समय पर न करके अन्य समय में करना तथा वर्षायोग के नियमों का उल्लंघन करना दोष है।
गर्व, प्रमाद, आलस्य, अनाभोग, भय, प्रदोष एवं क्रोधादि भाव रूप परिणमन करना दोष है। यह प्रमादादिजन्य कार्यों में उद्यमशील है या समीचीन कार्यों में सावधानी पूर्वक उद्यमशील रहते हुए भी किसी कारणवश दोष लगे हैं। इस दोषी साधु का संहनन कैसा है? कमजोर है या मजबूत है ? प्रायश्चित्त लेने में या