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मरणकण्डिका - १७४
की शुद्धि के भाव न होना आलोचना के अतिचार हैं। आलोचना और प्रायश्चित्त के अतिचार तदुभय प्रायश्चित्त के अतिचार है। भावपूर्वक विवेक न होना विवेक प्रायश्चित्त तप के अतिचार हैं, शरीर से ममत्व न हटाना कायोत्सर्ग के तथा अशुभ ध्यान रूप परिणाम होना व्युत्सर्ग के अतिचार हैं। ऐसे अन्य भी अतिचार आगम से ज्ञातव्य हैं।
क्षपक के अपराध प्रगट करना महान् दोष है विश्वस्तो भाषते सर्वानाचार्याणामसी न सः ।
आचार्यो भाषतेऽन्येभ्यस्तां स्तुवन् स्विदधार्मिकः ।।५०७ ।। अर्थ - क्षपक मुनि आचार्य को विश्वसनीय मानकर अपने दोष उनसे कहता है किन्तु जिनेन्द्रकथित धर्म से भ्रष्ट यदि कोई आचार्य शिष्य द्वारा कथित उन दोषों को दूसरों पर प्रगट कर देता है तो ऐसा आचार्य जिनधर्म से बहिर्भूत है ।।५०७॥ .
रहस्य-भेदिना तेन, त्यक्ताः कल्मष-कारिणा।
साधुरात्मा गणसङ्घो, मिथ्यात्वाराधना कृता ॥५०८॥ अर्थ - क्षपक के गुप्त दोषों को प्रगट कर देनेवाले उस पापकारी आचार्य ने मानों चार आराधनाएँ ही नष्ट कर दी। इतना ही नहीं अपितु उसने उस साधु का त्याग, संघ का त्याग, गण का त्याग और अपनी आत्मा कभी न कर निकी कार दी, ऐसा समझना चाहिए ॥५०८॥
दोष कहने मात्र से साधु का त्याग हो जाता है रहस्यस्य कृते भेदे, पृथग्भूयावतिष्ठते ।
कोपतो मुञ्चते वृत्तं, मिथ्यात्वं वा प्रपद्यते ॥५०९॥ अर्थ - अपने दोषों को प्रगट हुआ जान कर क्षपक साधुसंघ छोड़ कर चला जायेगा, या क्रोधावेश में दीक्षा ही छोड़ देगा अथवा मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाएगा ।।५०९ ।।
प्रश्न - क्षपक साधु इस प्रकार की क्रिया क्यों करेगा ?
उत्तर - अपने गुप्त दोषों का प्रकाशन देखकर व्यथित होता हुआ वह सोचेगा कि अहो ! विश्वासपात्र जान कर मैंने इन्हें अपने दोष कहे थे किन्तु इसने मेरे साथ विश्वासघात किया है, अब यह मेरा गुरु नहीं है। यदि मैं इसे प्रिय होता तो यह मेरे दोष दूसरों से क्यों कहता ? मैंने अद्यावधि जो माना था कि "ये गुरु ही मेरे प्राण हैं" आज मेरी वह श्रद्धा नष्ट हो गई। अब मैं एक-क्षण भी इसके संघ में नहीं रह सकता । लज्जित होकर या आत्मगौरव खोकर संघ में रहने की अपेक्षा तो असंयमी जीवन ही उत्तम है। ऐसा सोच कर क्षपक संयम छोड़ देगा, या अन्य संघ में चला जायेगा या मिथ्यात्व का सेवन करने लगेगा। क्षपक के दोष दूसरों के प्रति व्यक्त करने से आचार्य की स्वयं की आत्मा का त्याग हो जाता है
मारयत्यथवा सूरि, साधुर्मान-ग्रहाकुलः। संसारकानन-भ्रान्तिं, न मन्यन्ते हि मानिनः ।।५१० ।।