________________
मरणकण्डिका - १८६
कुशलोऽपि यथा वैद्यः, स्वं निगद्यातुरो गदम् ।
वन्यस्य परतोऽज्ञात्वा, विदधाति परिक्रियाम् ।।५५२।। अर्थ - निर्यापकाचार्य क्षपक को समझा रहे हैं कि - देखो ! चतुर वैद्य भी रोग हो जाने पर अपना रोग दूसरे वैद्य को बता कर और उससे रोग दूर करने की औषधि एवं उसे ग्रहण करने की विधि ज्ञात कर रोग का प्रतिकार करता है ।।५५२॥
जानतापि तथा दोषं, स्व-मुक्त्वा परके गुरौ ।
परिज्ञाय विधातव्या, महाशुद्धिः पटीयसा ॥५५३॥ अर्थ - क्षपक स्वयं आचार्य है, चतुर है, दोषनिवृत्ति की विधि को स्वयं जानता है तो भी उसे अन्य आचार्य के निकट जाकर, विनयपूर्वक अपने दोष उनसे कह कर एवं दोषों का प्रक्षालन करने की विधि जानकर अपने रत्नत्रय की महाविशुद्धि कर लेनी चाहिए ।।५५३ ।।
प्रश्न - आचार्य को भी परसाक्षी में दोष कह कर शुद्धि करने का विधान किस कारण कहा गया है?
उत्तर - परसाक्षी पूर्वक अपराधों को साकार जात्मशुद्धि करने का विधान निर्धार कसे का कारण यह है कि एक महान् आचार्य को भी अन्य आचार्य के निकट अपने दोषों की आलोचना करते देख कर अन्य सभी यतिजन अपनी-अपनी आत्मा की शुद्धि का अनादि क्रम ऐसा ही है' इस प्रकार की श्रद्धा कर वे भी परसाक्षी पूर्वक ही शुद्धि करेंगे और यदि आचार्यजन ही स्वसाक्षी से शुद्धि करने लगेंगे, तब अन्य सभी साधु उसी मार्ग को अपनावेंगे, वे फिर क्यों गुरुजनों की शरण में जावेंगे ? क्योंकि लोग तो गतानुगतिक होते हैं।
ततः सम्यक्त्व-चारित्र-ज्ञान-दूषणमादितः।
एकाग्रमानसः सर्वं, त्वमालोचय यत्नतः॥५५४॥ अर्थ - इसलिए दीक्षाकाल से अद्यावधि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र में जो-जो दोष लगे हों उन सब की तुम सावधानीपूर्वक एकाग्रचित्त से आलोचना करो ।५५४ ।।
विद्यते यद्यतीचारो, मनो वाक्काय-सम्भवः ।
आलोचय तदा सर्व, नि:शल्यीभूत-मानसः॥५५५ ।। अर्थ - अशुभ परिणामों के योग से मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति द्वारा जो भी अतिचार लगे हों उन सबकी तुम निःशल्य मन होकर आलोचना करो ।।५५५ ॥
कालेऽमुकत्र देशे वा, जातो भावनयानया।
दोषो ममेति विज्ञाय, त्वमालोचय सर्वथा ॥५५६॥ अर्थ - अमुक काल में, अमुक देश में और अमुक भाव से मेरे द्वारा अमुक-अमुक दोष हुआ है, इस प्रकार सब द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव आदि को ज्ञात कर हे मुने ! तुम सब प्रकार से आलोचना करो।।५५६॥
प्रश्न - यहाँ काल एवं देश आदि की भिन्नतापूर्वक दोष कहने की प्रेरणा क्यों दी जा रही है?