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मरणकण्डिका - १८५
रूप-गन्ध-रस-स्पर्श-शब्दानां मा स्म भूर्वशः।
कषायाणां विधेहि त्वं, शत्रूणामिव निग्रहम् ॥५४७ ।। अर्थ - भो क्षपक ! तुम पंचेन्द्रियों के स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और मनोज्ञ शब्द रूप विषयों के आधीन कभी मत होना। जैसे शस्त्रों द्वारा शत्रुओं का निग्रह करते हैं वैसे ही तुम क्षमादि गुणों के द्वारा कषायों का निग्रह करने का उद्यम करो।।५४७ ॥
रागद्वेष-कषायाक्ष-संज्ञाभिर्गौरवादिकम् ।
विहायालोचनां शुद्धां, त्वं विधेहि विशुद्धधीः ।।५४८।। अर्थ - हे विशुद्धबुद्धिधारी क्षपकराज ! तुम राग, द्वेष, कषाय, इन्द्रियों को एवं ऋद्धि, रस एवं सात, इन तीन भेद वाले गारव को छोड़कर विशुद्ध आलोचना करो॥५४८ ।।
प्रश्न - आलोचना के पूर्व राग-द्वेषादि छोड़ने की प्रेरणा क्यों दी जा रही है ?
उत्तर - यह मानव-मन रागवश दोषों को नहीं देखता और द्वेषवश गुणों को नहीं देखता तथा ये रागद्वेष ही असत्य बोलने के मूल कारण हैं, अतः इनका निराकरण किये बिना शुद्ध आलोचना कर लेना सम्भव नहीं है। जैसे तालाब का कर्दम निकले बिना जल स्वच्छ नहीं हो सकता, वैसे ही रागद्वेष, कषाय एवं गारवादि दोषों के विद्यमान रहते शुद्ध आलोचना नहीं हो सकती, अतः सर्व प्रथम इन्हें छोड़ने की प्रेरणा दी गई है।
निरतिचारवत होते हुए अन्याचार्य के समक्ष आलोचना करना आवश्यक है
स षट्त्रिंशद्-गुणेनापि, व्यवहार-पटीयसा।
कर्तव्यैषा महाशुद्धिरवश्यं पर-साक्षिका ।।५४९ ।। अर्थ - छत्तीस गुण समन्वित एवं व्यवहार में अर्थात् प्रायश्चित्त देने में कुशल क्षपक को अन्य आचार्य की साक्षी में ही अपने अतिचारों की शुद्धि करना आवश्यक है।।५४९ ।।
___छत्तीस गुण निरूपण अष्टाचारादयो ज्ञेयाः, स्थितिकल्पा गुणादश।
तपो द्वादशधा षोढावश्यकं षट्-घडाहतम् ।।५५० ॥ अर्थ - आचारवत्व आदि आठ गुण, दश प्रकार का स्थितिकल्प, बारह तप और छह आवश्यक ये छत्तीस गुण हैं। अथवा आठ ज्ञानाचार, आठ दर्शनाचार, बारह तप, पाँच समिति और तीन गुमि इस प्रकार से भी छत्तीस गुण हैं ।।५५० || ।
सर्वे तीर्थकृतोऽनन्तजिनाः केवलिनो यतः।
छास्थस्य महाशुद्धिं, वदन्ति गुरु-सन्निधौ ॥५५१॥ अर्थ - अतीतकाल में जितने तीर्थकर हुए हैं एवं अनन्त केवली जिन हुए हैं वे सब ही छद्मस्थ जीवों की महाशुद्धि गुरु के निकट होती है एसा कहते हैं ॥५५१ ।।