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मरणकण्डिका - १७८
बहुतायत होने से स्निग्ध, कर्णप्रिय, शिष्य के चित्त में पूर्व अभ्यास किये हुए श्रुत के अर्थ का स्मरण करा देने में समर्थ ऐसी श्रेष्ठ वाणी द्वारा क्षपक के लिए कथा कहते हैं या दिव्य देशना देते हैं॥५२३ ।।
सुखकारी दधात्येनं, मज्जन्तं दुस्तरे भवे। पूत-रत्नभृतं पोतं, कर्णधार इवार्णवे ।।५२४।। शील-संयमरत्नान्यं, यति-नावं भवार्णवे।
निमज्जन्तीं महाप्राज्ञो, विभर्ति सूरि-नाषिकः ॥५२५ ॥ अर्थ - जिस प्रकार उत्तम रत्नों से भरी हुई किन्तु समुद्र में डूबती हुई नौका की रक्षा नाविक अर्थात् खेवटिया करता है, उसी प्रकार शील एवं संयमरूपी श्रेष्ठ रत्नों से भरी हुई किन्तु भूख-प्यास आदि परीषह रूपी तरंगों से दुस्तर भवसमुद्र में डूबने के सम्मुख हुई क्षपक यति रूपी सुखकारी नौका की रक्षा महाप्राज्ञ निर्यापकाचार्य रूपी नाविक अर्थात् कर्णधार करते हैं। वे परीषहों से शिथिल-परिणामी क्षपक को घोर संसार-सागर में पतित होने से बचा लेते हैं ।।५२४-५२५ ॥
कर्णाहुतिं न चेद्दत्ते, धृति-स्थामकरी गणी।
आराधनां सुखाहतीं, जहाति क्षपकस्तदा ॥५२६॥ अर्थ - यदि आचार्य धैर्य एवं स्मृति की स्थिरता रूप मधुरवाणी की कर्णाहुति न दें अर्थात् क्षपक के कानों में न सुनावें तो वह क्षपक सुखावह आराधना को छोड़ देता है ।।५२६॥
क्षपकस्य सुखं दत्ते, कुर्वन्यो हित-देशनाम् ।
निर्यापकं महाप्राज्ञं, तमाहुः सुखकारणम् ॥५२७॥ अर्थ - महाप्राज्ञ निर्यापकाचार्य हित का उपदेश देकर क्षपक को सुख देते हैं, अतः उस आचार्य को 'सुखकारी' इस नाम से कहते हैं॥५२७ ।।
ददाति शर्म क्षपकस्य, सूरिनिर्यापकः सर्वमपास्य दुःखम् । यतस्ततोऽसौ क्षपकेण सेव्यः, सर्वे भजन्ते सुखकारिणं हि ॥५२८॥
इति सुखकारी ॥ अर्थ - निर्यापकाचार्य क्षपक के सर्व दुख दूर करके उसे सुख देते हैं, इस कारण वे आचार्य क्षपक के द्वारा सेवनीय होते हैं, क्योंकि सभी जीव सुखकारी पदार्थों का आश्रय लेते हैं॥५२८ ।। इस प्रकार आचार्य के सुखकारी विशेषण का कथन पूर्ण हुआ।
शशिकला छन्द शिवसुखमनुपममपरुजममलं, व्रतवति शमवति हितकृति सकलम् । वितरति यतिपतिरिति गुणकलितः, शम-यम-दममय-मुनिजन-महितः॥५२९॥