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मरणकण्डिका - १८२
बिना परीक्षा किये कार्य प्रारम्भ कर देते हैं वे अपना धर्म का एवं क्षपक का अर्थात् इनमें से किसी का भी उपकार नहीं कर सकते हैं।
इस प्रकार निरूपण अधिकार पूर्ण हुआ || २० ॥
२१. पृच्छा अधिकार
आपृच्छ्य क्षपकं सूरिगृह्णाति प्रतिचारकैः । अनुज्ञातमपृच्छायां त्रयाणां मनसः क्षतिः || ५४१ ।। इति पृच्छा ॥
अर्थ - क्षपक को समाधि हेतु ग्रहण करने के पूर्व आचार्य अपने संघस्थ परिचारक अर्थात् वैयावृत्य करने में कुशल मुनिजनों से पूछते हैं, पश्चात् क्षपक को ग्रहण करते हैं। यदि संघस्थ मुनिजनों से न पूछा जाय तो आचार्य, क्षपक और संघ तीनों को संक्लेश होगा ।।५४१ ॥
प्रश्न - परिचारकों से कैसे पूछा जाता है और न पूछने पर तीनों को संक्लेश क्यों होता है?
उत्तर - आचार्य परिचारक साधुओं से इस प्रकार पूछते हैं कि यह अतिथि क्षपक रत्नत्रय की साधना में हमारी सहायता चाहता है। साधुसमाधि और आगत विघ्नों को दूर कर क्षपक की सेवा-शुश्रूषा अर्थात् वैयावृत्य करना तो तीर्थंकर नामकर्म के बन्ध के कारण हैं, यह बात आप सब जानते ही हैं। ऐसा पुण्य देने के लिए आये हुए इस साधु को साहाय्य देना हमारा कर्तव्य है या नहीं ? इस विषय में आप सबकी जो सम्पति हो, सो कहो। जगत् में लौकिक जन भी परोपकार में तत्पर रहते दिखाई देते हैं, तब यतिजनों का तो कहना ही क्या है ? वे तो समस्त निकट भव्य जीवों को संसाररूपी अगाध कीचड़ से निकालने में उद्यमशील रहते हैं। " आत्महित करना चाहिए और यदि शक्य हो तो परहित भी अवश्य करना चाहिए" ऐसा आगम-वचन है, इत्यादि । इस प्रकार पूछने पर यदि वे सम्मति देते हैं तो आचार्य क्षपक को स्वीकार करते हैं, अन्यथा नहीं । परिचारकों को पूछे बिना क्षपक को ग्रहण कर लेने पर यदि गण के साधु आगत क्षपक की विनय एवं वैयावृत्य नहीं करेंगे तो क्षपक को संक्लेश होगा कि मैं कहाँ फँस गया हूँ क्योंकि संघस्थ साधु तो मेरी कुछ भी संभाल नहीं करते हैं। गुरु को अति संक्लेश होगा कि देखो ! मैंने इसका उपकार करना प्रारम्भ किया किन्तु संघ आंशिक भी सहायता नहीं करता है, अब मैं अकेला क्या करूँ ? परिचारक यतियों को संक्लेश होगा कि यह कार्य तो बहुत जनों के करने का है किन्तु हमारा यह गुरु नहीं मानता और न हमारे सामर्थ्य का ही विचार करता है, और जब हमसे पूछा ही नहीं, तब हमें क्या करना, इत्यादि ।
इस प्रकार पृच्छा अधिकार पूर्ण हुआ ।। २१ ।।
२२. एकसंग्रह अधिकार
एक ही क्षपक को संस्तरारूढ़ होने की जिनेन्द्राज्ञा है एक: संस्तरकस्थोऽग्नौ यजतेऽड्गं जिनराज्ञया । दुः करै: संल्लिखत्यन्यस्तपोभिर्विविधैर्यति ||५.४२ ।।