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मरणकटिका .१६२
दिया है तथा अपने गुरु के प्रायश्चित्त देने के क्रमादि को भी देखा है, ऐसे निर्यापकाचार्य को व्यवहारी कहते हैं।।४६५।।
प्रश्न - व्यवहारज्ञ आचार्य में प्रायश्चित्त सम्बन्धी कौन-कौन से गुण होने चाहिए ?
उत्तर - प्रायश्चित्त शास्त्र का ज्ञान, गुरुओं द्वारा दिये हुए प्रायश्चित्त का दर्शन और प्रायश्चित्त देने का अभ्यास, ये तीन गुण जिसमें होते हैं उसे ही व्यवहारवान् आचार्य कहते हैं। प्रायश्चित्तशास्त्र के ज्ञान से रहित जो आचार्य अपनी इच्छानुसार प्रायश्चित्त देते हैं उससे दूसरों की शुद्धि नहीं होती। प्रायश्चित्त शास्त्र का ज्ञाता होते हुए भी यदि उसने कभी अन्य आचार्यों को प्रायश्चित्त देते हुए नहीं देखा है तो वह प्रायश्चित्त देते समय स्वयं खेदखिन्न हो जायेगा तब दूसरे की शुद्धि क्या करेगा।
पाँच प्रकार के व्यवहार के नाम व्यवहारो मतो जीद-श्रुताज़ागम-धारणा ।
एतेषां सूत्र-निर्दिष्टा, ज्ञेया विस्तर-वर्णना ।।४६६।। अर्थ - यहाँ व्यवहार शब्द का अर्थ प्रायश्चित्त है। यह प्रायश्चित्त जीद, श्रुत, आज्ञा, आगम और धारण के भेद से पाँच प्रकार का है, जिसका सविस्तर वर्णन सूत्रों में निर्दिष्ट है, अत: वहीं से जानना चाहिए ||४६६॥
प्रश्न - यहाँ सूत्रों से ही जीद आदि प्रायश्चित्त का अर्थ जानने को क्यों कहा गया है? उत्तर - क्योंकि किन्हीं आरातीय आचार्यों ने कहा है कि -
सव्वेण वि जिण-बयणं, सोदव्वं सड्ढिदेण पुरिसेण।
छेद-सुदस्स हु अत्थो, ण होदि सव्वेण सोदव्वो। भगवती आ. पृ. ३५५ ।।
अर्थात् समस्त श्रद्धालु पुरुषों को जिनागम सुनना चाहिए किन्तु छेद अर्थात् प्रायश्चित्त शास्त्र का अर्थ सबको नहीं सुनना चाहिए।
प्रश्न - इन जीद आदि प्रायश्चित्तों का संक्षिप्त लक्षण क्या है ?
उत्तर - बहत्तर आचार्यों द्वारा जिसका विधान किया गया है, उसी को जब वर्तमान के आचार्य ग्रहण करते हैं तब उस प्राचीन प्रायश्चित्तविधि को जीद प्रायश्चित्त कहते हैं। अथवा केवली या चौदहपूर्वधरों के द्वारा जो व्यवहार प्रवर्त हुआ था, वही पुन:पुनः प्रवर्त होता रहा, उसी को वर्तमान आचाय ने ग्रहण किया उसे जींद प्रायश्चित्त कहते हैं।
चौदह पूर्वधरों के द्वारा या चौदहपूर्वो में कहे हुए को श्रुत-प्रायश्चित्त कहते हैं।
अन्य स्थान में स्थित आचार्य द्वारा अन्य स्थान स्थित किन्हीं अन्य आचार्य के द्वारा आलोकित अपने गुरु के दोष ज्येष्ठ शिष्य के हाथ भेजना, उक्त आचार्य दोषानुसार प्रायश्चित्त विधि बताकर उस शिष्य को जब