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मरणकण्डिका - १५९
शिक्षान्न-श्रुति-पानाभ्यां, साधुराप्यायित: पुनः।
क्षुधा-तृष्णाभिभूतोऽपि, शुद्धध्याने प्रवर्तते ॥४५४ ।। अर्थ - हित की शिक्षारूप उत्कृष्ट अन्न और शास्त्र-श्रवणरूप पान के द्वारा क्षपक को सन्तुष्ट अर्थात् तृप्त कराया जाता है, उससे वह भूख-प्यास से पीड़ित होने पर भी पुनः शुद्ध या शुभ ध्यान में प्रवृत्त हो जाता है। अर्थात् बहुश्रुतज्ञ आचार्य के आश्रय से तो क्षपक वेदना से आकुलित होता हुआ भी आत्मध्यान में स्थिर हो जाता है किन्तु वहीं क्षपक अज्ञानी आचार्य के आश्रय से आर्तरौद्रध्यानी बन जाता है ।।४५४ ॥
क्षुधया तृष्णया साधोर्बाधितस्य ददाति न।
उपदेशमशास्त्रज्ञः समाधि-जनन-क्षमम् ।।४५५ ।। अर्थ - भूख-प्यास से पीड़ित उस क्षपक को अल्पज्ञानी आचार्य समाधि के साधनभूत उत्कृष्ट उपदेशादि देने में समर्थ नहीं हो सकता, अत: निर्यापक शास्त्रज्ञ ही होना चाहिए ।।४५५ ॥
ताभ्यां प्रपीडितो बाढं, भिन्नभावस्तनुश्रुतः ।
रोदनं याचनं दन्यं, करुणं विदधाति सः ।।४५६ ।। अर्थ - वह अल्पज्ञानी क्षपक भूख-प्यास से पीड़ित होता हुआ शुभ भावों को छोड़ देता है और भोजन-पान की याचना करता है, दीनता प्रगट करता है तथा ऐसा रुदन करता है कि सुनने वालों को दया आ जाती है।।४५६॥
पूत्कुर्यादसमाधान-पानं पिबति पीडितः।
मिथ्यात्वं क्षपको गच्छेद्विपद्येतासमाधिना ।।४५७ ।। अर्थ - भूख-प्यास से पीड़ित क्षपक सहसा चिल्लाने लगता है, असमाधान पानक पीने लगता है, सदुपदेश के अभाव में मिथ्यात्व भाव को प्राप्त हो जाता है और पश्चात् असमाधि से मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।।४५७॥
प्रश्न - असमाधान पानक किसे कहते हैं?
उत्तर - स्वयं खड़े होकर, अपने दोनों हाथों से आहार के समय, दाता के द्वारा प्रदत्त जो योग्य पान किया जाता है उसे समाधिपान कहते हैं, और इससे विपरीत बिना दिये, बैठकर तथा असमय में जो जल पी लिया जाता है उसे असमाधान पानक कहते हैं।
हित्वा निर्भय॑मानोऽसौ, संस्तरं गन्तुमिच्छति।
पूत्कुर्वत्ययशस्तत्र, त्याज्यमाने च जायते ॥४५८॥ अर्थ - क्षपक का असमाधान पानक आदि अयुक्त कार्य देखकर यदि उसका तिरस्कार किया जाएगा तो वह संस्तर छोड़कर भागने की चेष्टा करेगा, और यदि रोने-चिल्लानेवाले क्षपक को संघ छोड़ देगा तो धर्म का महान् अपयश होगा। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि शास्त्रज्ञान से रहित निर्यापक क्षपक का नाश कर देता है।।४५८॥