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मरणकण्डिका - १५६
सारणां वारणां नास्य, कुरुते च्यवन-स्थितः।
क्षपकस्य महारम्भं, कञ्चित्कारयते गणी।।४४४ ।। अर्थ - जो निर्यापक स्वयं च्यवनस्थित है अर्थात् भ्रष्ट है वह सारणा अर्थात् रत्नत्रय में प्रवृत्ति और वारणा अर्थात् रत्नत्रय से च्युत होने का निषेध नहीं करेगा और क्षपक का निमित्त लेकर अथवा क्षपक से महारम्भ करवायेगा अर्थात् वसतिका, पट्टकशाला आदि बनाने का तथा महापूजा-विधानादि का कार्य करवायेगा॥४४४।।
आचारस्थः पुनर्दोषान्यत: सर्वान्विमुञ्चति । निर्यापकस्तत: सूरिराचारस्थोऽभिधीयते ।।४४५ ।।
इति आचारी ॥ अर्थ - आचारवत्त्व गुण युक्त आचार्य उपर्युक्त दोषों का त्याग करते हैं, क्योंकि दोशे से रहित और गुणों में प्रवृत्त होनेवाले आचार्य ही निर्यापक होने योग्य हैं, ऐसा कहा गया है ।।४४५ ।।
इस प्रकार आचारवत्त्व गुण का वर्णन पूर्ण हुआ।
आधारवान् गुण का कथन धीरोऽखिलाना-पूर्वज्ञो, यः कालव्यवहारवित् ।
आधारी स महाप्रज्ञो, गम्भीरो मन्दरस्थिरः ॥४४६ ॥ अर्थ - जो आचार्य सम्पूर्ण अंगों और पूर्वो का ज्ञाता है, समय और व्यवहार को जाननेवाला है; महाप्रज्ञ, सुमेरु सदृश स्थिर मनवाला, धीर एवं गम्भीर है वह आधारवान् कहा जाता है ।।४४६ ।।
प्रश्न - आधारवान् को किसका आधार है और क्षपक के लिए उनकी क्या उपयोगिता है?
उत्तर - ज्ञान आधार है अतः जो ज्ञानवान् है वही आधारवान् है। ये क्षपक को समझाते रहते हैं कि देखो! अशुभ, शुभ और शुद्ध के भेद से परिणाम तीन प्रकार का है। मन, बचन, काय सम्बन्धी विकल्परूप परिणाम अशुभ हैं, पुण्यास्रव के कारणभूत परिणाम शुभ हैं और शुभ एवं अशुभ कर्मों के संवर में कारणभूत परिणाम शुद्ध हैं, अत: आपको अपने परिणामों में सावधानी बरतनी है, इत्यादि । इस प्रकार जो दिन-रात श्रुत का उपदेश करते हुए क्षपक को शुभ या शुद्ध परिणामों में लगाये रहते हैं, तथा दर्शन, चारित्र और तप का आधार होने से वे क्षपक को इन गुणों में भी स्थिर रखने का उपक्रम करते रहते हैं। यही उनकी उपयोगिता है।
ज्ञानहीन आचार्य का आश्रय लेने में दोष हैं चतुरङ्गमगीतार्थो, नाशयेल्लोक-पूजितम्।
संसृतौ लप्स्यते भूयो, नाशितं तच्च दुःखतः ॥४४७॥ अर्थ - जो निर्यापक सिद्धान्त का मर्मज्ञ नहीं है वह क्षपक के लोक-पूजित चतुरंग को नष्ट कर देता है और एक बार चतुरंग का नाश हो जाने पर संसार में उसका पुनः प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है ।।४४७ ।।