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मरणकण्डिका - १४८
आलोचना किये बिना भी आराधक होने का कारण संवेगोद्वेग-सम्पन्नः, शुद्ध्यर्थं गच्छत्यसौ यतः।
मनःशल्यं निराकर्तु, भवत्याराधकस्ततः॥४२४ ॥ अर्थ - जो माया शल्य को निकाल कर रत्नत्रय की शुद्धि के लिए आचार्य के समीप जा रहा है तथा संवेग और उद्वेग से सहित है वह यदि कारण विशेष से आलोचना न भी कर पावे तो भी वह आराधक है।।४२४ ।।
प्रश्न - संवेग, उद्वेग एवं माया शल्य किसे कहते हैं और आलोचना किये बिना साधु आराधक कैसे हो सकता है?
उत्तर - संसार से भयभीत होना संवेग है। शरीर की अशुचिता, असारता और दुखदायकता देखकर तथा इन्द्रियजन्य सुखों को अतृप्तिकारक एवं तृष्णावृद्धि का कारण जान कर उनसे विरक्त होना उद्वेग है। तथा किये हुए अपराधों की आलोचना न करना मायाशल्य है। हृदय में मायाशल्य रहते रत्नत्रय की शुद्धि नहीं होती
और रत्नत्रय की शुद्धि बिना सुसमाधि नहीं होती। समाधिकांक्षी जो आचार्य ऐसे संवेग और उद्वेग-से सम्पन्न हैं तथा मायाशल्य का विसर्जन करने का दृढ़ संकल्प लेकर ही गुरु के पास जा रहे हैं, भाग्यवशात् गुरु न मिल सके और आलोचना न हो सके तो भी अभिप्राय शुद्ध होने से उनकी समाधेि में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती
गुरु-अन्वेषक को मार्ग में प्राप्त होने वाले गुण आचार-जीद-कल्पानां, जायते गुणदीपना।
गुणाः स्वशुद्ध्यसंक्लेशौ, मार्दवार्जव-चतुष्टयम् ।।४२५॥ अर्थ - गुरु-अन्वेषक आचार्य को मार्ग में आचार-शास्त्र, जीदशास्त्र और कल्पशास्त्र के गुणों का प्रकाशन, अपनी परिणाम-शुद्धि, संक्लेश का अभाव, मार्दव एवं आर्जव इन चार गुणों की प्रामि होती है।४२५॥
प्रश्न - इन गुणों के लक्षण क्या हैं?
उत्तर - निर्यापक अन्वेषक आचार्य रत्नत्रय की शुद्धि का प्रयत्न कर रहे हैं और आचार विशेष के प्रतिपादक आचार, जीद और कल्प ग्रन्थ निरतिचार रत्नत्रय का ही प्रकाशन करते हैं, अतः अन्वेषक का प्रयत्न इन शास्त्रोक्त आचरणों का ही प्रगटीकरण कर रहा है। रत्नत्रय की शुद्धि का लक्ष्य होने से आत्मा की शुद्धि होती है। संक्लेश परिणाम तो नष्ट होते ही हैं किन्तु गुरु-अन्वेषण में मार्ग-गात जो कष्ट हो रहा है उसमें भी वे संक्लेश नहीं करते हैं। कपटरहित आलोचना करने के लिए ही गुरु की खोज कर रहे हैं अत: आर्जव गुण प्रगट हो रहा है। तथा परसंघ में जाने से और वहाँ जाकर 'दोष प्रगट करूंगा' इस संकल्प से मार्दव गुण प्रगट होता