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परणकण्डिका - १४१
अतिथि क्षपक को देख पर-गणवासी साधुओं की समाचारी का क्रम
आलोक्य सहसायान्तमभ्युत्तिष्ठन्ति संयताः।।
आना-संगह-सात्सल्य-मा-कृत बिलाः॥४२६ ॥ अर्थ- अन्वेषक अतिथि मुनि को आता देख आज्ञापालन, संग्रह, वात्सल्य तथा प्रणाम हेतु सब संयत जन शीघ्र ही खड़े हो जाते हैं ।।४२६॥
प्रश्न - खड़े हो जाने मात्र से आज्ञापालन आदि का द्योतन कैसे हो जायेगा ?
उत्तर - अतिथि मुनि को आता देख यदि परगणवासी साधु सहसा खड़े हो जाते हैं तो वे जिनेन्द्राज्ञानुवर्ती हैं, आगत मुनि को आपने स्वीकार कर लिया, यह प्रगट हो जाता है। आपका उनके प्रति वात्सल्य भाव है, यह भी ज्ञात हो जाता है, आप अतिथि के चरणों में नमन करने के लिए खड़े हुए हैं ऐसा आभास हो जाता है और आनेवाले साधु का आचरण भी इस उपाय से जाना जाता है, इसलिए आगत मुनि को देख कर शीघ्र ही खड़े हो जाना चाहिए।
वास्तव्यागन्तुकाः सम्यक्, विविधैः प्रतिलेखनैः।
क्रिया-चारित्र-बोधाय, परीक्षन्ते परस्परम् ।।४२७ ।। अर्थ - वास्तव्यमुनि और आगन्तुक मुनि एक दूसरे की क्रिया और चारित्र का ज्ञान करने के लिए नाना प्रकार के प्रतिलेखनों द्वारा भली प्रकार से परस्पर परीक्षा करते हैं ॥४२७ ॥
प्रश्न - ये दोनों परस्पर परीक्षा क्यों और किसकी करते हैं ?
उत्तर - आगत क्षपक और गण के वास्तव्य ये दोनों मुनि एक दूसरे के आचरण को परीक्षा पूर्वक देखते हैं। यहाँ क्रिया से छह आवश्यकों का और चारित्र से समितियों तथा गुप्तियों का ग्रहण किया गया है अर्थात् एक दूसरे की क्रिया एवं चारित्र की सदोषता या निर्दोषता की परीक्षा करते हैं। अथवा आचार्यों के उपदेश में भेद होने से साधुओं का समाचार अनेक प्रकार का है अत: दुरवगम है, उसका जानना कठिन है, उसे जानने के लिए एक दूसरे की परीक्षा करते हैं। अथवा यह साधु हमारे संघ में रहने योग्य है या नहीं, यह जानने के लिए परीक्षा करते हैं।
परीक्षा के प्रकार आवश्यके ग्रहे क्षेपे, स्वाध्याये प्रतिलेखने।
परीक्ष्यन्ते वचोमार्गे, विहाराहारयोरपि ॥४२८॥ अर्थ - छह आवश्यक क्रिया, वस्तुओं का उठाना और रखना, स्वाध्याय में तत्परता, प्रतिलेखन अथवा कमण्डलु आदि का शोधन, वार्तालाप अर्थात् गृहस्थजैसे या मिथ्यात्ववर्धक आदि वचन बोलते हैं या संयमी के योग्य बोलते हैं; विहार समितिपूर्वक है या नहीं, नीहार प्रासुक एवं गूढ़ भूमि पर करते हैं या नहीं तथा आहार में शुद्धता एवं गृद्धता आदि क्या कैसी है, इन सबका परस्पर में परीक्षण करते हैं।।४२८ ।।