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मरणकण्डिका - १४६
प्रश्न - 'बिना निमित्त निवृत्ति कैसे हो इसका क्या भाव है?
उत्तर - इसका भाव यह है कि कारण के बिना कार्य नहीं होता। ममता का निमित्त स्वसंघ-निवास है क्योंकि अपनत्व भाव बिना ममता का भाव जाग्रत नहीं होता। यह मेरा है' यही भाव तो ममता का उत्पादक है। इसी प्रकार ममता के अभाव का निमित्त परसंघनिवास है क्योंकि वहाँ ममता का कारण मम भाव नहीं है। यह ममता का अभाव ही मोक्ष का कारण है। इसीलिए कहा गया है कि बिना निमित्त निवृत्ति अर्थात् मोक्ष कैसे"।
पर-गण-प्रवेश श्रेष्ठ है गणे स्वकीयेऽपि गुणानुरागी, सत्यस्मदीयं गणमागतोऽयम् । मत्येति भक्त्या निजया च शक्त्या, प्रवर्तते तस्य गणः स्व-कृत्ये ॥४१४॥
अर्थ - अपना गण होते हुए भी ये हमारे गुणों में अनुरागी होकर यहाँ आये हैं, ऐसा मान कर परगणवासी मुनिसमुदाय पूर्ण आदर-भक्ति और अपने सामर्थ्य के अनुसार उनकी सेवा करने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं, अतः पर-गण में प्रवेश करना ही श्रेष्ठ है ||४१४।।
निर्यापकाचार्य ऐसा होना चाहिए गृहीतार्थो गणी प्रार्थ्यः, क्षपकस्योपसेदुषः।
निर्यापकश्चरित्रादयो, जायते सर्व-यत्नतः॥४१५॥ अर्थ - उस क्षपक का निर्यापकाचार्य अनेक समाधिकाक्षी मुनियों द्वारा प्रार्थ्य हो, जीवादि पदार्थों का वेत्ता हो और चारित्र में दृढ़ हो, सर्व प्रयत्नपूर्वक ऐसा निर्यापकाचार्य खोजना चाहिए ।।४१५ ।।
संविग्नस्याघ-भीतस्य, पादमूले व्यवस्थितः। अहंदागम-सारस्य, भवत्याराधको यतिः॥४१६॥
इति परगण-चर्या-सूत्रम् ॥१५ ।। अर्थ - जो संसार और पाप से भयभीत है तथा अर्हन्त प्रणीत आगम के हार्द का ज्ञाता है, ऐसे निर्यापकाचार्य के पादमूल को प्राप्त होनेवाला साधु ही आराधनाओं का अर्थात् समाधि का साधक होता है।४१६॥
इस प्रकार परगण-चर्या नामक सूत्र पूर्ण हुआ ॥१५॥
१६. मार्गणा सूत्र पञ्च षट् सप्त वा गत्वा, योजनानां शतानि सः।
निर्यापकमनुज्ञातुं, समाधानाय मार्गति ।।४१७ ॥ अर्थ - समाधि का इच्छुक साधु पाँच सौ, छह सौ, सात सौ योजन अथवा उससे भी अधिक जाकर अपनी आत्मसंतुष्टि के लिए या कार्यसिद्धि के लिए शास्त्रोक्त गुणों से युक्त निर्यापकाचार्य को खोजता है॥४१७ ॥