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मरणकाण्डका - १४५
__ अर्थ - जिन्हें बचपन से अपनी गोद में बैठा कर पालन किया है ऐसे बालमुनि, वृद्धमुनि एवं आर्यिकाओं को अपने वियोग से अनाथ जैसे विह्वल होते देख गुरु के मन में स्नेह उमड़ सकता है, जो उनकी असमाधि का कारण है।।४०९॥
करुणा एवं ध्यान में विघ्न नामक दोष आर्यिकाः क्षुल्लिकाः क्षुल्लाः, कारुण्यं कुर्वते यतः।
ध्यानविघ्नोऽसमाधिश्च, जायते गणिनस्ततः ।।४१० ॥ अर्थ - बाल मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक और क्षुल्लिका आदि गुरु को समाधिस्थ देख या उनका वियोग होते देख रो पड़ते हैं, जिन्हें देख कर गुरु को करुणा उमड़ पड़ती है, उससे ध्यान में विघ्न आ जाता है और आचार्य को अशान्ति हो जाती है ।।४१० ॥
असमाधि दोष गणिन: प्रैष्य-शुश्रूषा-भक्तपानादि-कल्पने।
स्व-गणेप्यसमाधानं, शिष्यवर्गे प्रमाद्यति ॥४११॥ आई - प्रैट का अर्थात् आमार्य के द्वारा कार्यवशात् अन्यत्र कहीं भेजे जाने में, या हस्त, पैर एवं शरीरादि का मर्दन करने में या आहार, पान तथा औषधि आदि की व्यवस्था में शिष्य वर्ग प्रमाद करता है तो आचार्य की असमाधि हो सकती है अर्थात् स्वसंघ में समाधिग्रहण में ऐसे प्रसंगों पर आचार्य के मन में विकल्प उठना स्वाभाविक है कि 'हमने इन शिष्यों का जीवन भर उपकार किया और आज अक्सर आने पर ये हमारी इतनी भी सेवा नहीं करते' । इस प्रकार के आर्त-रौद्र ध्यान से समाधि बिगड़ सकती है, अत: आचार्य को स्वसंघ में समाधि नहीं करनी चाहिए ॥४११॥
स्व संघ में समाधि करने से अन्य साधुओं को भी दोष लगते हैं एते दोषाः सन्ति सङ्घ स्वकीये, सूरेः साधोस्तादृशस्यापि यस्मात् । तस्मात् त्यक्त्वा त्वं समाधानकांक्षी, धीरः सचं स प्रयात्यन्यदीयम् ।।४१२ ॥
अर्थ - ये दोष विशेष रूप से अपने संघ में रह कर समाधि करनेवाले आचार्य के होते हैं। आचार्य के ही सदृश अन्य भी उपाध्याय एवं प्रवर्तक आदि संघ का उपकार करनेवाले जो-जो साधु अपने गण में रह कर समाधिमरण करते हैं उन्हें भी ये दोष होते हैं, अत: समाधि के इच्छुक धीर आचार्य स्वसंघ को छोड़कर दूसरे संघ में जाते हैं॥४१२ ।।
अन्य संघ में इन दोषों की सम्भावना नहीं है भवन्ति दोषा न गणेऽन्यदीये, संतिष्ठमानस्य ममत्व-बीजम्।
गणाधिनाथस्य ममत्वहानेविना निमित्तेन कुतो निवृत्तिः? ॥४१३॥
अर्थ - अन्य संघ में जानेवाला आचार्य वहाँ ममत्वहीन होकर रहता है, अत: ममत्व का बीज अर्थात् ममत्व का कारण न होने से पूर्वोक्त दोष भी वहाँ नहीं लगते, क्योंकि बिना निमित्त निवृत्ति कैसे हो ॥४१३||