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मरणकण्डिका
अर्थ - संघ में अनेक प्रकार के साधु रहते हैं। उनमें से कोई वृद्ध साधु पर का अपवाद करने में उद्यत हो जाते हैं, कोई शैक्ष्य साधु या कोई कठोर परिणामी साधु कलह में तत्पर रहते हैं, कोई स्वच्छन्द हो जाते हैं, इस प्रकार के शिष्य आचार्य की आज्ञा का भंग कर देते हैं तब वह आज्ञाभंग ही आचार्य की असमाधि का कारण बन जाता है ||४०२ ॥
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प्रश्न- शिष्य, आचार्य की आज्ञा का उल्लंघन क्यों करते हैं और यदि आज्ञा उल्लंघन हो भी जाय तो आचार्य की समाधि बिगड़ने की सम्भावना क्यों होती हैं ?
उत्तर - संघ में बाल, वृद्ध, रुग्ण, उद्दण्ड, कोपी एवं अभिमानी अनेक प्रकार के साधु रहते हैं। कोई अपराध या श्रमण संहिता का उल्लंघन देख कर आचार्य यदि हितकारी किन्तु कटु या अनुशासन युक्त वचनों द्वारा कुछ कहते हैं, या कोई आज्ञा देते हैं, तब कोई शिष्य आचार्य या संघ का अपयश करते हैं, कोई क्षुद्र अज्ञानी कलह करते हैं, कोई संघत्याग की धमकी देते हैं, कोई कोप करते हैं, कोई वाद-विवाद करते हैं और कोई कटुतापूर्ण उत्तर देते हैं। इस प्रकार आज्ञाभंग आदि होते देख आचार्य के मन में सन्ताप हो सकता है कि देखो, मैंने जीवन भर इनका सम्पोषण कर योग्य बनाया और आज ये मेरा जीर्ण अवस्था देख अवज्ञा कर रहे हैं। यह सन्ताप उनकी समाधि में बाधक बन सकता है।
इन्द्रवज्जाछन्द
व्यापार- हीनस्य ममत्व - हाने:, संतिष्ठमानस्य गणेऽन्यदीये । नाज्ञा - विघाते विहितेऽपि सूरेरेतैरशेषैरसमाधिरस्ति ।।४०३ ॥
अर्थ - समाधि की इच्छा से पर संघ में पहुँच जाने पर वहाँ भी आज्ञा भंग हो सकती है किन्तु संघ का कोई उपकारादि कार्य न किये जाने से और ममत्वभाव की हीनता से आचार्य को सन्ताप नहीं होता, अतः उनकी असमाधि नहीं होती ||४०३ ॥
परुष दोष
शालिनी छन्द
बालान्वृद्धान्शैक्षकान्दुष्टचेष्टान् दृष्ट्वा सूरिर्निष्ठुरं वक्ति वाक्यम् ।।
किञ्चिद्राग-द्वेष- मोहादि युक्ताः, ते वा ब्रूयुः संस्तव प्राप्त - धायः ॥ ४०४ ॥
अर्थ - अपने संघ में रहनेवाले बाल, वृद्ध एवं शैक्ष्य आदि साधुओं की दुष्ट चेष्टा को देखकर आचार्य उन्हें निष्ठुर वचन बोल देते हैं, अथवा अपनी प्रसिद्धि के कारण राग, द्वेष एवं मोहादि से युक्त वे मुनि धृष्टतापूर्वक आचार्यदेव को कठोर वचन बोल देते हैं। इस प्रकार परस्पर कठोर वचनों के आदान-प्रदान से असमाधि होने की सम्भावना रहती है ॥ ४०४ ॥
कलह दोष
उपजाति छन्द
वाक्याक्षमायामसमाधिकारी, सूरेः समं तैः कलहो दुरन्तः ।
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दोषास्ततो दुःख - विषाद-खेदाः भवन्ति सर्वेष्वनिवारणीयाः ||४०५ ।।