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मरणकण्डेिका - १४२
आचार्यदेव के बिना यह पृथ्वी उसी प्रकार शोभायमान नहीं होती जिस प्रकार कीचड़ रहित अर्थात् निर्मल जल के बिना सरोवर शोभायमान नहीं होता || ३९७ ॥
वंशस्थ छन्द
बुधैर्न शीलैः रहिता नितम्बिनी, न्पस्विदानैः रहिना गृहरुथता । गुरूपदेश: रहिता तपस्विता, प्रशस्यते नित्य सुखप्रदायिनी ।। ३९८ ।।
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अर्थ - शीलरहित नारी, साधुजनों को आहारदान किये बिना गृहस्थपना तथा गुरु के नित्य सुखप्रद उपदेश बिना तपश्चरण बुद्धिमानों द्वारा प्रशंसनीय नहीं माना जाता है ।। ३९८ ॥
वंशस्थ छन्द
मनीषितं वस्तु समस्तमङ्गिनां, सुरद्रुमाणामिव यच्छतां सदा ।
गुणैर्गुरूणां विरहो गरीयसां न शक्यते सोढुमपास्त- रेफलाम् ।। ३९९ ।।
इति अनुशिष्टि-सूत्रम् ।
अर्थ - कल्पवृक्षों के सदृश जीवों को समस्त मनोवांछित वस्तु को देनेवाले और गुणों से गुरु ऐसे महान् पापरहित गुरुओं का विरह सहन करना शक्य नहीं है ।। ३९९ ।।
इस प्रकार अनुशिष्टि प्रकरण पूर्ण हुआ ।। १४ ।
१५. परगण चर्या
आपृच्छ्येतिगणं सर्व, करोत्याराधनाकांक्षी, गन्तुं परगणं प्रति ॥४०० ।।
चतुरङ्ग - महोद्यमम् ।
अर्थ - इस प्रकार अपने सर्वसंघ को पूछ कर चार आराधना रूप महान् उद्यम में प्रयत्नशील और आराधनाकांक्षी आचार्य अन्य संघ के प्रति गमन में उत्सुक होते हैं || ४०० ||
स्वसंघ में रहने से दोष
आज्ञाकोपो गणेशस्य परुषः कलहोऽसुखम् ।
निर्भय-स्नेह- - कारुण्य-ध्यान-विघ्नासमाधयः || ४०१ ||
अर्थ - (अपने संघ में रह कर ही समाधि करें तो ) आचार्य की आज्ञाभंग, कठोर वचन, कलह, दुख, निर्भयता, स्नेह, कारुण्य, ध्यान में विघ्न और असमाधि ये दोष होते हैं || ४०१ ॥
आज्ञाभंग
उपजाति छन्द
परापवादोद्यतयो जरन्तः, शैक्ष्याः खरा युद्धपरानधीनाः ।
आज्ञाक्षति मंक्षु गणे स्वकीये कुर्वन्ति सूरेरसमाधि - हेतुम् ॥ ४०२ ॥