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परणकण्डिका - १४१
थे। आपने हमें शास्त्र गुना र ऋर्ण युक्त नियः भौ. वार का का रूप लोचन प्रदान किये अर्थात् हमें आगमचक्षु बनाया है, अतः हम ऐसा मानते हैं कि आपने ही हमें हृदय, कर्ण और चक्षु दिये हैं।
सर्व-जीवहिते वृद्धे, सर्व-लोकैकनायके।
प्रोषिते वा विपन्ने वा, देशा: शून्याः भवन्ति ते ॥३९२॥ अर्थ - भो गुरुदेव ! आप सब जीवों का हित करनेवाले हैं, आप ज्ञान एवं तप से भी वृद्ध हैं, जगत् में सब जीवों के स्वामी हैं, आप अब प्रवास करनेवाले हैं। अथवा संन्यासमरण करने वाले हैं, अतः अब हमें सर्वदेश शून्य दिखते हैं ||३९२।।
अनन्य-तापिभिः सर्वैर्गुण-शील-पयोथिभिः।
हीना बहुश्रुतैर्देशाः, सान्धकारा भवन्ति ते ||३९३ ।। अर्थ - दूसरों को सन्ताप न देनेवाले, समस्त शील और गुणों के सागर तथा बहुश्रुतज्ञ ऐसे आपके प्रवास कर जाने पर या समाधिस्थ हो जाने पर आप जैसे महर्षियों से हीन ये सर्वदेश अन्धकारमय हो जायेंगे ॥३९३ ।।
सर्वज्ञैरिव यैर्वृद्धैर्जन्यन्ते तत्त्व-निश्चयाः।
देह-नाशे प्रवासे वा, तेषामन्धा भवन्ति ते ॥३९४ ॥ अर्थ - सर्वज्ञ सदृश ज्ञानवृद्ध आपके द्वारा संघ एवं देश के भव्यजन तत्त्वनिश्चय को प्राप्त हुए थे, अब आपके अन्यत्र प्रवास कर जाने पर या आपकी देह का विनाश हो जाने पर संघ एवं देश तत्त्व-निश्चयविहीन अन्ध सदृश हो जायेगा ।।३९४ ।।
वाक्यरात्यायिता लोका, चैर्मेघा इव वारिभिः।
येभ्यस्ते निर्गता वृद्धास्ते देशाः सन्ति खण्डिताः ॥३९५॥ अर्थ - जैसे जल द्वारा मेघ पूर्ण रहते हैं, वैसे ही आपके धर्मवाक्यों द्वारा हम लोग भी सन्तोष से परिपूर्ण थे। जैसे जलपूर्ण मेघ निकल जाने पर वे देश धान्यविहीन एवं जनशून्य हो जाते हैं, ऐसे ही आप जैसे वृद्ध महात्मा के निकल जाने पर ये देश खण्डित अर्थात् धर्मशून्य हो जायेंगे ॥३९५ ॥
दायकानामशेषस्य, सूरिणामुपकारिणाम्।
समान-सुख-दुःखानां, वियोगो दुःसहश्चिरम् ॥३९६ ।। अर्थ - सम्पूर्ण ज्ञानादि गुणों के प्रदाता, परमोपकारी एवं सुख-दुख में समान भाव रखनेवाले ऐसे आचार्यों का वियोग अत्यन्त दुःसह है। अहो ! चिरकाल पर्यन्त दुःसह है॥३९६ ।।
__ वंशस्थ छन्द पवित्र-विद्योद्यत-दान-पण्डितैस्तनूभृतां ताप-विषादनोदिभिः।
गणाधिपैर्भाति विना न मेदिनी, निरस्त-पत्रैः सरसीव वारिभिः ।।३९७॥ अर्थ - जीवों को पवित्र विद्या रूप श्रेष्ठ दान देने में निपुण एवं ताप और विषाद को दूर करनेवाले ऐसे