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मरणकण्डिका - १३६
स्व-प्रशंसा के दोष मा छेदयन्तु स्व-यशो, मा कार्युः स्वं प्रशंसनम् ।
लघवः स्वं प्रशंसन्तो, जायन्ते हि तृणादपि ॥३६९ ॥ अर्थ - हे साधुजन ! तुम अपने मुख से अपनी प्रशंसा मत करो। स्वयं की प्रशंसा करके अपने यश को छिन्न-भिन्न मत करो। अर्थात् समीचीन गुणों के कारण फैला हुआ यश स्वयं की प्रशंसा करने से नष्ट हो जावेगा अत: उसे बचाओ। जो व्यक्ति अपने मुख से अपनी प्रशंसा करता है वह तृण से भी अति लघु अर्थात् तुच्छ हो जाता है ॥३६९ ।।
स्व-स्तवेन गुणा यान्ति, काज्ञिकेनेव सीधुनि।
स दोषः परमस्तेषां, कोप: संयमिनामिव ।।३७० ।। अर्थ - 'मुझ में ऐसे-ऐसे गुण हैं' इस प्रकार अपनी प्रशंसा करने से विद्यमान भी गुण उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं, जैसे कांजी पीने से मदिरा का नशा नष्ट हो जाता है, क्योंकि संयमी को क्रोध आना जैसे बड़ा दोष है, वैसे ही अपनी प्रशंसा करना बड़ा दोष है ।।३७० ॥
अनुक्तोऽपि गुणो लोके, विद्यमानः प्रकाशते
प्रकटीक्रियते केन, विषस्वानुदितो जनैः॥३७१॥ अर्थ - स्वयम् अपने गुण न कहने पर भी वे विद्यमान रहते हैं और लोक में प्रसिद्धि को भी प्राप्त होते हैं। देखो ! सूर्य प्रगट हुआ है. ऐसा किन लोगों के द्वारा प्रगट किया जाता है ? ||३७१ ।।
कथ्यमाना गुणा वाचा, नासन्त: सन्ति देहिनः।
षण्डका न हि जायन्ते, योषा वाक्य-शतैरपि ।।३७२।। अर्थ - मनुष्यों में जो गुण असत् हैं अर्थात् जिस मनुष्य में जो गुण नहीं हैं वे वचन द्वारा कहने मात्र से सत्रूप नहीं हो जाते हैं। जैसे किसी नपुंसक को यह स्त्री है, स्त्री है" ऐसा सैकड़ों वचनों द्वारा कहे जाने पर भी वह स्त्री नहीं बन जाता, वह तो नपुंसक ही रहता है ।।३७२ ।।
विद्यमानं गुणं स्वस्य, कोयमानं निशम्य यः ।
महात्मा लज्जते चित्ते, भाषते स कथं स्वयम् ॥३७३॥ अर्थ - सज्जन मनुष्यों के बीच में अपने विद्यमान भी गुणों की प्रशंसा सुन कर जो लज्जित हो जाता है, वह स्वयं ही अपने गुणों की प्रशंसा कैसे कर सकता है? कदापि नहीं कर सकता ॥३७३।।
स्व-प्रशंसा न करने के गुण निर्गुणोऽपि सतां मध्ये, सगुणोऽस्ति स्वमस्तुवन्। न श्लाघते यदात्मानं, गुणस्तस्य स एव हि ॥३७४॥