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मरणकण्डिका - १३४
है तथा मात्र वचन और काय-सम्बन्धी आसवों को रोकनेवाला द्रव्य संयम ही जिसने ग्रहण कर रखा है ऐसा साधु भी जब संसारभीरु तथा वैराग्यशील साधुओं के बीच रहता है तब वह भी अन्य साधुओं की संसारभीरता देखकर स्वयं संसार के दुखों से भयभीत होकर, अथवा अपने हीनाचरण से लज्जायमान होकर, अथवा अहो ! ये साधु धन्य हैं जो अपने चारित्र में दृढ़ हैं, मुझे दृढ़चारित्री बनना चाहिए, इस भावना से अथवा जैसा द्रव्य, क्षेत्र और काल इनके लिए है वैसा ही मेरे लिए है फिर मैं कायर क्यों बन रहा हूँ? मैं भी इसी प्रकार का चारित्र पालन कर संसारसागर से पार होने रूप अपने कुलधर्म का निर्वाह करूँगा? इस प्रकार के गौरव से वह अपनी पापक्रियाओं से निवृत्त होने का उद्योग करता है। द्रव्य संयम धारण करने का यह लाभ हुआ कि वह चारित्रवानों की संगति प्राप्त होते ही स्वतः भाव संयमी बन गया।
संविग्नः परमां कोटिं, साधुः संविग्न-मध्यगः।
. गन्धयुक्तिरिवायाति, सुरभि-द्रव्य-कल्पिताम् ॥३६३॥ अर्थ - जैसे बनावटी अर्थात् कल्पित गन्ध से युक्त द्रव्य सुगन्धित द्रव्य के संसर्ग से और भी अधिक सुगन्धित हो जाता है, वैसे ही संवेगसम्पन्न मुनियों के मध्य निवास करनेवाला साधु उत्कृष्ट परम कोटि के वैराग्य को प्राप्त हो जाता है ॥३६३।।
एकोऽपि संयतो योगी, वरं पार्श्वस्थ-लक्षतः।
साद गदीपेड, रतुझं विवर्धते ।।३६४ ।। अर्थ - चारित्रभ्रष्ट या चारित्रहीन पार्श्वस्थादि लक्ष साधुओं की अपेक्षा एक ही सुशील एवं संयमी मुनि श्रेष्ठ है क्योंकि उस एक उत्तम साधु की संगति से ही सम्यक्त्व आदि चारों आराधनाएँ वृद्धिंगत हो जाती हैं॥३६४।।
वरं संयततः प्राप्ता, निन्दा संयम-साधनी।
न स्वसंयततः पूजा, शील-संयम-नाशिनी ॥३६५ ।। अर्थ - संयमी तपस्वियों के द्वारा की गई निन्दा और अपमान असंयमी जनों द्वारा की गई पूजा या सत्कार से अधिक श्रेष्ठ है, क्योंकि असंयमी का सहवास शील एवं संयम का नाश करनेवाला है और संयमी का सहवास या उसके द्वारा की गई निन्दा संयम की वृद्धि में कारण है ॥३६५ ।।
प्रश्न - यह शिक्षा किसे लक्ष्य करके दी जा रही है?
उत्तर - जो साधु दृढ़ संयमी होने के साथ-साथ परोपकारी भी होते हैं वे संघस्थ चारित्रहीन साधु को सर्वप्रथम वात्सल्य एवं प्रेम से समझाते हैं किन्तु जब वह अपना हीनाचरण या स्वतन्त्रवृत्ति नहीं छोड़ता तब वे उसे ताड़ना आदि देकर या उसे निन्दात्मक शब्द बोल कर समझाते हैं, जिसे वह अपना अपमान मानता है। तब वह विचार करता है कि "ये संयमी साधु तो मेरा तिरस्कार करते हैं, डाँटते हैं, सदा मुझे कुछ-न-कुछ कहते ही रहते हैं, किन्तु वे चारित्रहीन साधु मुझे कभी कुछ नहीं कहते अतः वे बहुत अच्छे हैं। मैं तो अब उन्हीं के पास जाकर रहूँगा'। इत्यादि विचार करनेवाले साधु को लक्ष्य करके आचार्यदेव कहते हैं कि चारित्रहीन साधु