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मरणकण्डिका- ९३७
अर्थ - अपनी प्रशंसा न करनेवाला स्वयं गुणरहित होते हुए भी सज्जनों के मध्य में गुणवान सदृश होता है, क्योंकि अपनी प्रशंसा नहीं करना यही उसका गुण है || ३७४ ||
प्रश्न- गुणरहित को गुणवान कहना यह तो विरुद्ध कथन है ?
उत्तर - संसार का कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है जिसमें कोई-न-कोई गुण न हो, फिर भी सम्यग्ज्ञान आदि विशिष्ट गुणों का अभाव होने के कारण वह गुणरहित है किन्तु अपनी प्रशंसा नहीं करना इस गुण से वह गुणवान है । यदि उसमें गुण हैं तो वे बिना कहे स्वयं ही कसौटी पर कसे जायेंगे। कस्तूरी को अपनी गन्ध के लिए शपथ नहीं लेनी पड़ती है।
गुणानां नाशनं वाचा, क्रियमाणं निवेदनम् । प्रकाशनं पुनस्तेषां चेष्टयास्ति निवेदनम् || ३७५ ॥
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अर्थ - वचनों द्वारा स्व-गुणों को कहना मानों उन गुणों का नाश ही करना है। गुण तो अपने शुभाचरण प्रगट होते हैं, अतः जिन्हें अपने गुणों का प्रकाशन करना हो उन्हें अपनी सब प्रवृत्तियाँ सदाचार रूप ही करनी चाहिए ॥ ३७५ ॥
अजल्पन्तो गुणान् वाण्या, जल्पन्तश्चेष्टया पुन: । भवन्ति पुरुषाः पुंसां, गुणिनामुपरि स्फुटम् ॥ ३७६ ॥
अर्थ - जो वचन से न कह कर अपने आचरण से अपने गुणों को कहता है वह पुरुष सब से ऊपर होता है। अर्थात् सबसे अधिक श्रेष्ठ होता है || ३७६ ॥
निर्गुणो गुणिनां मध्ये, ब्रुवाण: स्वगुणं नरः ।
सगुणोऽप्यस्ति वाक्येन निर्गुणानामित्र ब्रुवन् ॥ ३७७ ॥
अर्थ - गुणीजनों के मध्य अपने गुण स्वयं कहनेवाला मनुष्य निर्गुण बन जाता है क्योंकि सगुण होकर भी वह निर्गुण ही कहा जाता है जो मात्र वचनों से अपने गुण कहता है ॥ ३७७ ।।
सगुणो गुणिनां मध्ये, शोभते चरितैर्गुणम् ।
ब्रुवाणो वचनैः स्वस्य, निर्गुणानामिवागुण: ।।३७८ ।।
अर्थ - गुणी मनुष्यों के बीच अपने गुणों को आचरण द्वारा प्रगट करता हुआ मनुष्य शोभा को प्राप्त होता है और निर्गुण मनुष्यों के समान वचनों द्वारा अपने गुणों को कहनेवाला मनुष्य गुणरहित है || ३७८ ||
आसादना न करने का निर्देश
यूयमासादनां कृध्वं मा जातु परमेष्ठिनाम् ।
दुरन्ता संसृतिर्जन्तोर्जायते कुर्वतो हि ताम् ॥ ३७९ ।।