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मरणकण्डिका - ११०
समये गणि-मर्यादा, तेषामाचार-चारिणाम् ।
स्वच्छन्देन प्रवर्तेत, लोक-सौख्यानुसारिणा ।।२९७ ।। अर्थ - ज्ञानाचार आदि पाँच प्रकार के आचार का आचरण अर्थात् पालन करनेवाले जो गणी हैं, उन गणियों की यह गणधर-मर्यादा आगम में कही है। जो लोकसुख के अनुसार अथवा लोक के अनुसार चलनेवाले तथा स्वच्छन्दता से प्रवर्तन करनेवाले हैं उनकी 'गणधर' यह मर्यादा सूत्र में नहीं कही है।।२९७ ।।
प्रश्न - सूत्र में गणधर की क्या मर्यादा कही है? लोकसुख और स्वच्छन्द प्रवर्तन का क्या भाव है?
उत्तर - ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इन पंचाचारों का निर्दोष रीत्या जो स्वयं पालन करते हैं और दूसरों को पालन कराते हैं, उन्हें गणधर अर्थात् आचार्य कहते हैं। गणधर की यही मर्यादा आगम में कही गई है। अर्थात जो स्वयं पंचाचार का पालन करता है. लौकिक सुख में नहीं प्रवर्तता है तथा आगमानुसार आचरण करता है वही आचार्य बन सकता है अन्यथा नहीं, क्योंकि जो स्वयं शिथिल आचारवाला है वह अन्य साधु-जनों को निर्दोष चारित्र पालन नहीं करा सकता, अत: वह आगम की मर्यादा के बहिर्भूत है।
लोकसुख या लौकिक सुख हैं मिष्टाहार का यथेष्ट भोजन करना, कोमल शय्या पर शयन करना, मनोहर वसतिकाओं में निवास करना, मेत्रों को तृप्त करनेवाले चल-चित्रादि देखना और कर्णप्रिय संगीत आदि सुनना, इन्हीं विषयों में रत रहना या इन्हीं की अभिलाषा पूर्ति के उपक्रम करना ।
शास्त्र में असंयमी और विधर्मी लोगों के साथ संसर्ग और गृहस्थ जैसे सुखों में आदर, ये बातें आचार्यों और मुनियों के लिए निषिद्ध कही गई हैं, किन्तु जो आगमाज्ञा की अवज्ञा कर इन्हीं बातों को श्रेय देते हैं एवं जो इनमें ही अहर्निश अनुरक्त रहते हैं वे स्वच्छन्द कहे जाते हैं। आगम की आज्ञा को लोप करने वाले एवं विषयासक्त ऐसे मुनि आचार्यत्व के योग्य नहीं हैं।
ममत्वं कुरुते हित्वा, यो राज्यं नगरं कुलम् ।
तस्य संयम-हीनस्य, केवलं लिङ्ग-धारणम् ।।२९८ ॥ अर्थ - जो राज्य, नगर एवं कुल आदि को छोड़ कर दीक्षित हुआ है, फिर उससे ममत्व करता है कि मेरा राज्य, मेरा नगर एवं मेरा कुल है, वह संयमरहित है। अर्थात् असंयतों में या परिग्रह में आदरभाव या ममत्व भाव होने से वह संयमी नहीं है, उसका मुनि बनना मात्र वेष धारण करना है ।।२९८ ॥
___ संघरक्षा की शिक्षा त्वं कार्येष्वपरिस्रावी, समदयखिलेष्वपि ।
भूत्वा विधानतो रक्ष, बाल-वृद्धाकुलं गणम् ।।२९९ । अर्थ - हे बालाचार्य ! 'मेरा यह गुरु अपरिनावी है' ऐसा समझ कर शिष्यगण आपको अपना अपराध कहें तो उन्हें आप प्रगट नहीं करना, सब कार्यों में समदर्शी रहना और बाल-वृद्ध यतियों से भरे गण की विधिपूर्वक रक्षा करना ॥२९९ ॥