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मरणकण्डिका - ११६
यदि किसी की मृत्यु आने में दस-बीस या पच्चीस वर्ष की देर भी हो तो जैसे पर्वत आदि पर अचानक वज्रपातादि हो जाता है वैसे ही मानवशरीर में अचानक किसी-न-किसी रोग का आक्रमण हो जाता है। जैसे डण्ठल में फल तभी तक स्थित रहता है जब तक वायु का प्रबल झोंका नहीं आता; उसी प्रकार शरीर में आयु, बल, वीर्य, रूप एवं नीरोगता तभी तक स्थिर रहते हैं जब तक शरीर में रोग नहीं आता । शरीर में व्याधि उत्पन्न हो जाने के बाद सहज सुख-शान्ति एवं निराकुलता पूर्वक व्रत, नियम तथा संयम आदि के द्वारा आत्म-कल्याण भी नहीं किया जा सकता।
राग रूपी प्रबल शत्रु का संसर्ग तो इस जीव के साथ अनादिकाल से है। यदि कुछ समय तक व्याधियों का आक्रमण भी न हो तो भी यह भीतर बैठा हुआ राग रूपी शत्रु अवा की आग के सदृश मानव मन को अहर्निश संतापित करता रहता है। जैसे मकान के चारों ओर धधकती हुई अग्नि गृह स्वामी के चित्त को भी पीड़ित करती है उसी प्रकार रागरूपी धधकती हुई अग्नि साधुओं के चित्त को भी पीड़ित करती रहती है। इस प्रकार राग रूप यह शत्रु, मित्र का वेष धारण कर शत्रु से बढ़कर जब मुनिजनों के चित्त को पीड़ा देता है तब समता भाव में स्थिर रहना कठिन होता है। पित्त का विकार वैद्य के कुशल प्रयोगों से शान्त हो जाता है किन्तु सबसे अधिक अहित करनेवाले इस राग के उदय को शान्त करने के लिए प्रशम भाव की प्राप्ति दुर्लभ है। जैसे पित्तशमन हो जाने पर काम में चित्त लग जाता है उसी प्रकार रागोत्पादक कर्म का उपशम होने पर प्रशम भाव जाग्रत हो जाता है और उसी समय आत्मकल्याण करने की शक्ति प्रगट हो जाती है। इस प्रकार हे साधुजन ! अवसर मत चूको । जब तक मृत्यु, व्याधि और राग ये बाधक कारण उपस्थित नहीं हुए तब तक अवश्य करणीय ऐसे सम्यक्तप में उद्योग कर कर्मनिर्जरा कर लो। ।
वैयावृत्य करने का उपदेश शक्तितो भक्तितः सथे, वत्सलास्ते चतुर्विधे।
वैयावृत्यकराः शश्वज्जिनाज्ञा-निर्जरार्थिनः ।।३०९॥ अर्थ - बालमुनि और वृद्धमुनियों से युक्त ऐसे चतुर्विध संघ की वैयावृत्य करने में हे मुनिवृन्द! आप अपनी शक्ति एवं भक्ति से सदा उद्यत रहो । सर्वज्ञदेव की आज्ञापालन तथा कर्मनिर्जरा की सिद्धि के लिए आप सबको वात्सल्य भाव से वैयावृत्य करना चाहिए, क्योंकि वैयावृत्य तप है और तप से निर्जरा होती है ।।३०९ ।।
वैयावृत्य करने की विधि उपधीनां निषद्यायाः, शय्यायाः प्रतिलेखनम् । उपकारोऽन्न-भैषज्य-मलत्यागादि-गोचरः ॥३१०॥ मार्गे चोरापगा-राज-दुर्भिक्ष-मरकादिषु ।।
वैयावृत्यं विधातव्यं, सरक्षा-संग्रहं सदा ।।३११॥ अर्थ - पीछी-कमण्डलु आदि उपकरणों का, बैठने के स्थान और आसन आदि का तथा शिला, तृण, चटाई, फलक अर्थात् पाटे आदि की शय्या का शोधन करके, निर्दोष आहार-पान तथा निर्दोष औषधि की व्यवस्था करके तथा अशक्त साधु के मल-मूत्र को साफ करके उनका उपकार करना वैयावृत्य है ।।३१०॥