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मरणकण्डिका - १२०
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४. भक्तिगुण भक्तिरर्हत्सु सिद्धेषु, धर्म-सूरिषु, साधुषु ।
वैयावृत्त्य-कृतोत्कृष्टा, पूजा भवति सेविता ।।३२१ ।। अर्थ - जो वैयावृत्त्य करते हैं, वे मानों अरहन्त परमेष्ठी, सिद्ध परमेष्ठी, रत्नत्रयरूप धर्म के पालक आचार्य, उपाध्याय एवं सर्व साधुओं में परमोत्कृष्ट भक्ति रखते हैं और मानों उनकी पूजा ही करते हैं। अर्थात् वैयावृत्त्य करने से उनकी भक्ति और पूजा की गई है ऐसा जानना ।।३२१ ।।
अर्हद्भक्तिः परा यस्य, बिभीते भवतो न सः।
येनावगाहिता गङ्गा, स किं नश्यति वह्नितः ।।३२२॥ अर्थ - जिसके हृदय में अरहन्त देव की उत्कृष्ट भक्ति विद्यमान है उसको संसार का भय नहीं होता। जिसने गंगा नदी में अवगाहन किया है वह क्या अग्नि-सन्ताप से नहीं छूट जाता? अवश्यमेव छूट जाता है ||३२२।।
प्रश्न - केवल अरहन्त की भक्ति का माहात्म्य क्यों कहा? और 'संसार का भय नहीं होता' इसका क्या अभिप्राय है?
उत्तर - दृष्टान्त में जैसे गंगा नदी उपलक्षण है। अर्थात् जैसे मात्र गंगा नदी में अवगाह करने से ताप दूर होगा, ऐसा नहीं है किन्तु किसी भी नदी में अवगाहन करनेवाले का ताप दूर होगा ही। उसी प्रकार यहाँ अरहन्त भक्ति उपलक्षण है। पंच परमेष्ठियों में की हुई भक्ति से संसार का भय दूर होता है। 'संसार का भय नष्ट करती है', अर्थात् जो अरहन्तदेव आदि की भक्ति करता है वह नियमतः संसार के परिभ्रमण से छूट जाता है।
संसार-भीरुतोत्पन्ना, निःशल्या मन्दराचला।
जिनभक्तिर्दृढा यस्य, नास्ति तस्य भवाद्भयम् ।।३२३॥ अर्थ - जिसके हृदय में संसार के संवेग से उत्पन्न हुई, तीन शल्यों से रहित और मन्दर मेरुवत् दृढ़ जिनभक्ति विद्यमान है, उसे संसार-परिभ्रमण का भय नहीं रहता ||३२३॥
प्रश्न - यहाँ नि:शल्या, मन्दराचला और जिनभक्ति पदों का क्या अभिप्राय है?
उत्तर - मिथ्या, माया और निदान इन तीनों शल्यों में से प्रत्येक शल्य संसार-परिभ्रमण का कारण है, दूसरी बात वैनयिक मिथ्यादृष्टि सर्वत्र भक्ति करता है किन्तु मिथ्या शल्य रहित न होने के कारण मात्र उस भक्ति से संसार-परिभ्रमण नहीं छूट सकता। अतः 'निःशल्या' पद से यह सिद्ध होता है कि सम्यग्दृष्टि, देशव्रती या सकलव्रती की भक्ति ही संसारनाश का हेतु है। 'मन्दराचला' पद से यह सिद्ध होता है कि जैसे सुमेरु पर्वत शाश्वत अचल है, वैसे ही जिनका हृदय सर्वकाल उस निश्छल भक्ति से आप्लावित रहता है और कठिन से कठिन परीक्षा के समय भी जिनकी श्रद्धा-भक्ति कम्पायमान नहीं होती उन्हीं का संसार-परिभ्रमण छूटता है। सासादन सम्यग्दृष्टियों के सदृश अल्पकालिक और भव्यसैन मुनिराज सदृश चलायमान भक्ति से संसार नहीं छूटता।।
'जिन' शब्द से पंच परमेष्ठियों का और रत्नत्रयरूप धर्म का ग्रहण होता है, क्योंकि अरहन्त भगवान के