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मरणकण्डिका - १२५
परीषह को सहने में असमर्थ होते हैं, तब उनकी वैयावृत्य करने से तप एवं संयम का रक्षण होता है। अन्य दूसरों से स्वयं की वैयावृत्य करा कर अथवा वैयावृत्य करनेवालों की अनुमोदना करके स्वास्थ्य लाभ करनेवाला अर्थात् रोगादि से निवृत्त हो जानेवाला साधु दूसरों की आपत्तियों को दूर कर स्वयं के सदृश उनके संयम एवं तप की भी रक्षा करता है। इस प्रकार संयम के रक्षण में सहायक होने से वैयावृत्य करनेवाले में संयम-साहाय्य गुण प्रगट होता है।
१३-१६. दान, निर्विचिकित्सा, प्रभावना एवं संघकार्य नाम के शेष चार गुण
दत्तं सातिशयं दानमचिकित्सा च दर्शिता।
सङ्घस्य कुर्वता कार्य, वाक्यं भावयतार्हताम् ।।३३२ ॥ अर्थ - सर्व दानों में रत्नत्रय का दान सर्वश्रेष्ठ है। वैयावृत्य करनेवाला रत्नत्रय रूप सातिशय दान देता है। निर्विचिकित्सा गुण का प्रदर्शन होता है। अर्थ-त प्रभु के वाकयों की अर्थात जनन की भावना होती है और संघ के करने योग्य कार्य का सम्पादन होता है ।।३३२॥
प्रश्न - इन चारों गुणों का विशेष भाव क्या है ?
उत्तर - सातिशयदान - अन्य सब दानों की अपेक्षा रत्नत्रय का दान सर्वश्रेष्ठ है, कारण कि रत्नत्रय से जीव संसार-समुद्र को पारकर मोक्षसुख प्राप्त कर लेता है। रोग आदि के कारण विचलित होने वाले साधु को वैयावृत्य करनेवाले तप आदि में स्थिर कर देते हैं, अत: उनके इस महान कार्य को सातिशय दान देना कहा गया है। वैयावृत्य करनेवालों में ही ऐसा दान देने का सामर्थ्य है।
अचिकित्सा अर्थात् निर्विचिकित्सा - निर्विचिकित्सा गुण सम्यग्दर्शन का एक अंग है और अनिर्विचिकित्सा सम्यक्त्व के पच्चीस दोर्षों में एक दोष है। रुग्ण साधु की सेवा करते समय उनके शरीर से निकला हुआ मल-मूत्र, वमन एवं फोड़े-फुन्सियों से निकलनेवाली पीव आदि को बिना जुगुप्सा के साफ कर देने से द्रव्यविचिकित्सा का त्याग हो जाता है और उसके निर्विचिकित्सा गुण का बाह्य में भी स्पष्ट प्रदर्शन हो जाता है तथा निर्विचिकित्सा अंग दृढ़ हो जाता है।
प्रभावना - प्रभावना भी सम्यक्त्व का एक अंग है। जिनागम में वैयावृत्य करने का उपदेश दिया गया है। वैयावृत्य करनेवाला अपने हृदय में जिनेन्द्र के वाक्यों को भावित कर अर्थात् जिनागम के उपदेश को हृदय में धारण कर उसके अनुसार वैयावृत्य करता है, अत: धर्म की प्रभावना होती है। इससे भी सम्यक्त्व दृढ़ होता
संघ कार्य - संघ का प्रमुख कार्य धर्मपालन है । यह धर्मपालन स्वतः तो होता ही है किन्तु रुग्ण आदि हो जाने पर वैयावृत्य करनेवाले साधुजन उसका पालन कराते हैं, इसलिए संघ को अपना कर्त्तव्य सम्पादन करने का श्रेय प्राप्त होता है।
वैयावृत्य के फल का माहात्म्य एवं गुणाकरीभूतं, वैयावृत्यं करोति यः । लभते तीर्थकृन्नाम, त्रैलोक्य-क्षोभ-कारणम् ।।३३३॥