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मरणकण्डिका- १२८
कभी किसी भी स्त्री की संगति नहीं करनी चाहिए। चलने, बैठने, रहने, आहार करने एवं स्वाध्याय आदि में कदाचित् सम्पर्क हो जावे, या प्रसंगवश कोई कार्य करना भी पड़े तो अप्रमादी होकर अर्थात् अत्यन्त सावधानीपूर्वक एवं उदासीन वृत्ति से करे ताकि उनका आकर्षण न बने ।
आर्यिकाओं के अनुचरण में दोष
विमुक्तः सर्वतो जातः, सर्वत्र स्ववशो यतिः । आर्यिकानुचरीभूतो जायते ऽन्य -वशः पुनः ॥ ३४१ ॥
अर्थ- जो साधु धन-धान्य एवं गृहादि समस्त परिग्रहों से मुक्त है, वह सर्वत्र अपने को अपने वश में रखता है, किन्तु वही साधु आर्यिका का अनुगामी होकर पुनः स्त्री, धन एवं धान्यादि परिग्रह के वश हो जाता है ॥ ३४१ ।।
आर्यिका - वचने योगी, वर्तमानो दुरुत्तरे ।
शक्तो मोचयितुं न स्वयं, श्लेष्ममग्नेव मक्षिका ।। ३४२ ।।
अर्थ - जैसे कफ में फँसी हुई मक्खी का उससे अपने को छुड़ा पाना शक्य नहीं है, वैसे ही जिसके हृदय का पार पाना कठिन है ऐसी आर्यिका के वचनों को स्वीकार कर लेनेवाले साधु का उसके स्नेह बन्धन छुटकारा पा लेना शक्य नहीं है || ३४२ ॥
नार्या बन्धेन बन्धोऽन्यस्तुल्यो वृत्तच्छिदा यतेः । वज्रलेपः स नो तुल्यो, यो याति सह चर्मणा ॥ ३४३ ॥
अर्थ - साधु के चारित्र का नाश करनेवाला आर्यिका के साथ सहवास ऐसा बन्धन है जिसकी किसी अन्य बन्धन से उपमा नहीं दी जा सकती । चर्म के साथ ही उतरनेवाला वज्रलेप भी उस बन्धन के समान नहीं
है ॥ ३४३ ॥
ब्रह्मव्रतं मुमुक्षूणां स्त्री - संसर्गेण निश्चितम् ।
मण्डूकः पन्नगेनेव, भीषणेन विनाश्यते ॥ ३४४ ॥
अर्थ - जैसे भीषण सर्प द्वारा मेंढक नष्ट कर दिया जाता है, वैसे ही स्त्री-संसर्ग से मुमुक्षु मुनिराजों का ब्रह्मचर्य व्रत नियमतः विनष्ट हो जाता है ॥ ३४४ ॥
चौराणामिव सङ्गत्यं पुंसा सर्वस्वहारिणाम् ।
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योगिना योषितां त्याज्यं, ब्रह्मचर्य - प्रपालिना ।। ३४५ ।।
इत्यार्यासङ्ग-त्यागः ।
अर्थ - जैसे सर्वस्व हरण कर लेनेवाले चोरों का सम्पर्क सदा त्याज्य है, वैसे ही साधुओं को ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए स्त्रियों का सम्पर्क सर्वथा त्याज्य है। अर्थात् ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए स्त्री-संसर्ग सर्वथा त्याग करने योग्य है ।। ३४५ ॥
इस प्रकार आर्यिका संगत्याग प्रकरण पूर्ण हुआ ।।