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मरणकण्डिका
बालाचार्य की प्रवृत्ति इस प्रकार होनी चाहिए
मुञ्च च्यवनकल्पं त्वं, विरोधं स्वान्य-पक्षयोः । असमाधिकरं वादं, कषायाग्निसन्निभान ॥ २९३ ॥
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अर्थ - हे बालाचार्य ! तुम च्यवनकल्प को, स्व पक्ष और पर पक्ष में विरोध करानेवाले कार्यों को, अशान्तिकारक वाद-विवाद को और अभि सदृश कषायों को छोड़ा ॥ २९३ ॥
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प्रश्न
बालाचार्य द्वारा छोड़ने योग्य च्यवनकल्प आदि के क्या लक्षण हैं?
उत्तर - शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा और संस्तव ये सम्यग्दर्शन के अतिचार
अकाल में वाचना और स्वाध्याय करना, द्रव्यशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि और कालशुद्धि बिना वाचनादि करना. निह्नव, ग्रन्थ अशुद्ध पढ़ना, अर्थ अशुद्ध करना एवं आदर का अभाव ये सम्यग्ज्ञान के अतिचार हैं। समिति की भावनाएँ न करना चारित्र का अतिचार है। इन सब अतिचारों को ही च्यवनकल्प कहते हैं। स्व पक्ष अर्थात् जैन धर्मस्थ मुनिगण एवं श्रावक जन, पर पक्ष अर्थात् मिथ्यादृष्टि जन, इनमें परस्पर विसंवाद होना विरोध है ।
चित्त की शान्ति भंग करनेवाले विसंवाद को बाद कहते हैं। वाद करनेवाला अपनी जय और अन्य की पराजय का ही प्रयत्न करता है, वह यथार्थ तत्त्व का समाधान नहीं कर पाता ।
कषायें स्व और पर को मारनेवाली हैं अतः इन्हें अग्नि सदृश कहा गया है। आचार्य को रत्नत्रय के रक्षणार्थ इन सबका त्याग करना चाहिए।
आचार्य पद की अयोग्यता एवं योग्यता
दर्शने चरणे ज्ञाने, श्रुतसारेषु यस्त्रिषु ।
निधातुं गणमात्मानमसमर्थो गणी न सः ॥ २९४ ।।
अर्थ - आगम के सारभूत तीन रत्न दर्शन, ज्ञान और चारित्र अर्थात् रत्नत्रय में जो अपने आप को एवं संघ को स्थापित करने में समर्थ नहीं है, वह आचार्य पद के योग्य नहीं है ।। २९४ ॥
दर्शने चरणे ज्ञाने, श्रुतसारेषु यस्त्रिषु ।
निधातुं गणमात्मानं शक्तोऽसौ गदितो गणी ।। २९५ ।।
अर्थ- आगम के सारभूत तीन रत्न दर्शन, ज्ञान और चारित्र में जो अपने आप को और संघ को स्थापित करने में समर्थ है. वह आचार्य पद के योग्य है ।। २९५ ।।
यः पिण्डमुपधिं शय्यां, दूषणैरुद्रमादिभिः । गृह्णीते रहितां योगी, संयतः स निगद्यते ॥ २९६ ।।
अर्थ - जो आहार, उपकरण और वसतिका को उद्गम, उत्पादन एवं एषणा आदि दोषों से रहित ग्रहण करता है, अर्थात् दोषयुक्त को ग्रहण नहीं करता वह योगी ही संयत कहा जाता है ।। २९६ ।।