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मरणकण्डिका - ११२
रहा है अत: आप सब अब सावधान रह कर स्वाध्याय में ही सदा लवलीन रहें ताकि जिनेन्द्र वचन रूपी अंकुश से आपका यह दुष्ट इन्द्रियरूपी हाथी आपके वशीभूत रह सके । आचार्य अपने शिष्यों को इस प्रकार की शिक्षा दे रहे हैं।
धन्यास्ते मानवा लोके, मन्ये ये विषयाकुले।
विचरन्ति गतग्रन्थाश्चतुरने निराकुलाः ।।३०४ ।। अर्थ - मैं ऐसा मानता हूँ कि पंचेन्द्रियों के स्पर्श, रस, रूप एवं शब्दादि विषयों से व्याप्त इस लोक में वे ही मनुष्य धन्य हैं, जो परिग्रह का अर्थात् पंचेन्द्रिय के विषयों की आसक्ति का त्याग कर चतुरंगे अर्थात् चार आराधनाओं में निराकुल प्रवृत्त हो रहे हैं ।।३०४॥
प्रश्न - गुरु की इस मान्यता का क्या अभिप्राय है ?
उत्तर - अपने शिष्य समुदाय को सन्मार्ग का उपदेश देते हुए आचार्यदेव जो अपनी मान्यता या अपना दृष्टिकोण व्यक्त कर रहे हैं उसका अभिप्राय यह है कि प्रत्येक साधु को अपने-अपने साधुत्व रूपी मन्दिर पर कलशारोहण करने हेतु ख्याति-पूजा और लाभ की वांछा का, बाह्याभ्यन्तर परिग्रहों का, लोकरंजना का, अशुद्ध आहार, पान एवं वसतिका आदि का, रागवर्धक उपकरणों का तथा आगमविरुद्ध आचरण करनेवाले साधुओं की एवं असंयमीजनों की संगति का त्याग कर मन एवं इन्द्रियों का निग्रह करते हुए और चारों आराधनाओं का निरतिचार पालन करते हुए समाधिपूर्वक मरण करना चाहिए।
विनीता गुरुशुश्रूषा-कारिणश्चैत्य-भक्तयः।
वत्सला भवत ध्याने, स्वाध्यायोद्यत-चेतसः॥३०५।। अर्थ - आप सभी साधुजन सदा विनय में संलग्न रहो, गुरुजनों की सेवा-वैयावृत्य करो, जिनप्रतिमाओं की भक्ति में उद्यत रहो, गुरु के प्रवचन में और सर्व संघ पर वात्सल्य भाव रखो, ध्यान में अनुराग रखो और मन की विशुद्धिपूर्वक स्वाध्याय में उद्यमशील रहो।।३०५॥
प्रश्न - विनय किसे कहते हैं, वह कितने प्रकार की है और विनय न करने का क्या फल है?
उत्तर - जो कर्ममल का नाश करता है, ऐसे कर्तव्य को विनय कहते हैं। आप सब दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय, तपविनय और उपचारविनय, इन पाँचों प्रकार की विनय में सदा संलग्न रहो। शंका,कांक्षा, विचिकित्सा आदि सम्यक्त्व के दोषों को दूर करना दर्शनविनय है। आपको प्रयत्नपूर्वक सम्यक्त्व विनय को प्राप्त करना चाहिए। आप अहर्निश इसी में उद्यमशील रहो। अन्यथा ये शंकादि दोष मिथ्यात्व को उत्पन्न कर देंगे, जिससे दर्शन मोहनीय कर्म का आस्रव होगा, उससे मिथ्यादर्शन में निमित्त मिथ्यात्व कर्म के कारण आप जैसे दुखभीरु जनों को अनन्तकाल पर्यन्त संसार में भ्रमण करायेगा।
शास्त्रों में स्वाध्याय का जो काल कहा है उसी काल में शुद्धि पूर्वक स्वाध्याय करो, श्रुतदान देने वाले गुरु की भक्ति करो । शास्त्र एवं गुरु का नाम छिपा कर 'स्वयं मैंने और मेरी ही बुद्धि से यह सब श्रुत ज्ञान प्राप्त किया है" ऐसा अभिमान करना छोड़ दो। कुछ नियम कर आदरपूर्वक स्वाध्याय प्रारम्भ करो, अर्थशुद्धि, व्यंजनशुद्धि और उभयशुद्धि पूर्वक अध्ययन करो । इस प्रकार आठ अंगों के साथ विनयपूर्वक भाया हुआ श्रुतज्ञान