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मरणकण्डिका
अर्थ - सर्वप्रथम नमस्कार कर अनन्तर भूतल पर बैठ कर किया है पंच नमस्कार जिन्होंने ऐसे वे गण सर्व साधुजन संसार के दुख से रक्षा करनेवाले, सबके ऊपर वात्सल्य भाव रखनेवाले तथा दश धर्मों में स्वयं प्रवृत्त होकर गण को प्रवृत्त करनेवाले ऐसे अपने पूर्वाचार्य से अपने सर्व अपराधों के प्रति भली प्रकार मन, वचन, काय से क्षमा माँगते हैं ॥ २८६ ॥
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| क्षमणा प्रकरण पूर्ण हुआ ।। अणुसिट्टि अर्थात् अनुशिष्टि अधिकार संघ को उपदेश
स सूत्रार्थ - रहस्यज्ञः, स्वार्थ-निष्ठोऽपि यत्नतः । संविप्रश्चिन्तयत्येवं, गणं धीरो जिनाज्ञया ।। २८७ ॥
अर्थ संसार से भयभीत, धीर, सिद्धान्त ग्रन्थों का अर्थ करने में निपुण तथा प्रायश्चित्त ग्रन्थ के ज्ञाता ऐसे पूर्वाचार्य अब अपने स्वार्थ अर्थात् समाधिनिष्ठता अर्थात् आत्महित की चिन्ता में तत्पर होते हुए भी जिनाज्ञानुसार चतुर्विध संघ की चिन्ता करते हैं ।। २८७ ॥
गम्भीरां मधुरां स्निग्धां, ग्राह्यामानन्ददायिनीम् । अनुशिष्टिं ददात्येवं स गणस्य गणेशिनः || २८८ |
अर्थ - पूर्वाचार्य गम्भीर अर्थात् सारभूत, मधुर, स्नेहपूरित, ग्राह्य और आनन्ददायक वचनों द्वारा नवीन आचार्य को और सर्व संघ को शिक्षा देते हैं । १२८८ ॥
रत्नत्रये विधातव्यं, वर्धमानं प्रवर्तनम् ।
कल्पाकल्प - प्रवृत्तानां सर्वेषामागमिष्यति ॥ २८९ ॥
अर्थ - सर्वेषां अर्थात् निवृत्ति और प्रवृत्ति मार्ग में प्रवर्तन करनेवाले इस चतुर्विध संघ को आगामी अर्थात् भविष्य में कल्पाकल्प अर्थात् योग्य और अयोग्य वस्तुओं में यथायोग्य प्रवृत्ति करते हुए रत्नत्रय मार्ग में ऐसा आचरण करना चाहिए जिससे रत्नत्रय वृद्धिंगत होता रहे ॥ २८९ ॥
नवीन आचार्य को शिक्षा
संक्षिप्तेहादितोऽम्भोधिं, गच्छन्तीव महानदी ।
विस्तरन्ती विधातव्या, गुण-शील- प्रवर्तना ।। २९० ।।
अर्थ - उत्पत्ति स्थान में सँकरी सी भी उत्तम महानदी जैसे विस्तार के साथ बढ़ती हुई समुद्र पर्यन्त जाती है, वैसे ही हे बालाचार्य ! आपको भी प्रारम्भ में अल्प प्रमाण से धारण किये गये गुणों, व्रतों एवं शीलादि को उत्तरोत्तर वृद्धिंगत करते रहना चाहिए ॥ २९० ॥
मास्म कार्षीर्विहारं त्वं, मार्जाररसितोपमम् । मानीनशो गणं स्वं च, कदाचन कथञ्चन ।। २९१ ।।