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मरणकण्डिका - १०५
१२. दिशा अधिकार
शरीर-त्याग का विचार न शक्नोम्यशुचि त्याज्यमिदं वोढुं महत्क्षयि ।
विचिन्त्येति वपुस्त्यक्तुं, गणं याति कृतक्रियः ।।२७९ ।। अर्थ - यह शरीर अपवित्र है, नष्ट होनेवाला है, त्याज्य है, अब मैं इस शरीर के भार को धारण करने में समर्थ नहीं हूँ। इस प्रकार शरीर-त्याग का विचार कर, समाधिमरण की तैयारी करता हुआ वह आचार्य या साधु अपने संघस्थ शिष्यों के पास जाता है ।।२७९ ।।
संघहित-चिन्तन अपि संन्यस्यता चिन्त्यं, हितं सङ्घाय सूरिणा।
परोपकारिता सद्धिः, प्राणादिन नुच्यते ॥२८।। अर्थ - सल्लेखना करने के लिए उद्यत क्षपक आचार्य को अपने संघ के हित का विचार करना चाहिए, क्योंकि सज्जन पुरुष प्राणान्त में भी परोपकार नहीं छोड़ते ॥२८० ।।
विज्ञाय कालमाहूय, समस्तं गणमात्मना । आलोच्य सदृशं भिक्षु, समर्थ गणधारणे ।।२८१ ।। प्रदेशे पावनीभूते, चारु-लग्नादिके दिने।
गणं निक्षिपते तत्र, स्वल्पां कृत्वा कथां सुधीः ॥२८२ ।। अर्थ - अपनी आयु और समाधिकाल का विचार कर आचार्य अपने संघ को और संघ को धारण करने में समर्थ जिस बालाचार्य को पूर्व में स्थापित किया था उन्हें किसी पवित्र स्थान पर बुलाकर सौम्य तिथि, वार, करण, नक्षत्र, योग एवं लग्न में उन बालाचार्य को संघ समर्पित कर देते हैं और थोड़ा सा उपदेश भी देते हैं ।।२८१-२८२ ।।
उक्तं च ज्ञान-विज्ञान-सम्पन्नः, स्वगुरोरभिसम्मतः।
विनीतो धर्म-शीलश्च, यः सोऽर्हति गुरोः पदम् ॥क्षेपक॥ अर्थ - जो ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न है, अपने गुरु को मान्य है, विनीत है, रत्नत्रय धर्म और शील का पालक है, वह शिष्य आचार्य पद के योग्य है।
(मूलाराधना दर्पण से उद्धृत) दिशाबोध अर्थात् शिक्षा अविच्छेदाय तीर्थस्य, तं विज्ञाय गुणाकरम्। अनुजानाति संबोध्य, दिगयं भवतामिति ।।२८३॥
इति दिक् सूत्रम्।