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मरणकण्डिका १०१
अर्थ - क्रोध को क्षमा से, मान को मार्दव रूपी सम्पदा से, माया को आर्जव से और लोभ को सदा सन्तोष से जीतना चाहिए ॥ २६८ ॥
चतुर्णां स कषायाणां, न वशं याति शुद्धधीः ।
उत्पत्तिस्त्यज्यते तेषां सर्वदा येन स तत्त्वतः ।। २६९ ।।
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अर्थ - जो शुद्ध बुद्धिशाली क्षपक हैं, वे उन कषायों की उत्पत्ति को ही रोक देते हैं, अतः वे उन क्रोध, मान, माया और लोभ के तप में नहीं होते ॥ २६९ ।।
तद्धेयं सर्वदा यत्र, कषायाग्निरुदीयते ।
यत्र शाम्यत्यस वस्तु, तदादेयं पटीयसा ।। २७० ।।
अर्थ- विचारशील चतुर क्षपक को वह वस्तु या वह द्रव्य क्षेत्रादि सर्वदा छोड़ देना चाहिए जहाँ कि क्रोधादि कषायरूप अग्नि उत्पन्न होती है, तथा जहाँ कषायों का शमन होता है, उस द्रव्यादि को ग्रहण करना चाहिए || २७० ॥
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अर्थ - यदि थोड़ी भी कषायरूप अग्नि उठती है तो उसे तत्काल बुझा देना चाहिए। जो कषायों को शान्त कर देते हैं, उनके यथार्थतः समस्त दोष उपशमित हो जाते हैं ॥ २७१ ॥
प्रश्न कषाय - उत्पत्ति के क्या चिह्न हैं और कषायों से क्या-क्या हानियाँ होती हैं ?
उत्तर
कषाय उत्पन्न होते ही मुख विरूप हो जाता है, नेत्र लाल हो जाते हैं, शरीर काँपने लगता है, शराबी मनुष्य के समान बड़बड़ाने लगता है और पिशाचग्रस्त मनुष्य के सदृश कुछ का कुछ कार्य करने लगता है। यह कषाय नीचों की संगति के सदृश हृदय को जलाती है, समीचीन ज्ञानरूपी दृष्टि को मलिन कर देती है, सम्यग्दर्शनरूपी बाग को उजाड़ देती है, चारित्ररूपी सरोवर को सुखा देती है, तपरूपी वन को जला देती है, अशुभ कर्मरूपी बेल की जड़ को गहरी जमा देती है, शुभ कर्मरूपी फलों को रसहीन कर देती है, पवित्र मन को मलिन कर देती है, हृदय को कठोर कर देती है, वाणी को असत्य की ओर ले जाती है, महान् गुणों का निरादर करती है, महापुरुषों के गुणों को ढक देती है, यशरूपी धन को नष्ट कर देती है, दूसरों पर दोषारोपण करती है, मित्रता की जड़ खोद देती है, किये हुए उपकारों को विस्मरण करा देती है, दुखों के भँवर में फँसा देती है, प्राणियों का घात करा देती है और अन्त में नरकरूपी भयंकर गर्त में पटक देती है। इस प्रकार कषाय ही सब प्रकार के अनर्थ करती है। ऐसा चिन्तन कर कषाय को शीघ्र ही शान्त कर लेना चाहिए।
कारण बिना कार्य सम्भव नहीं
यद्युदेति कषायानिर्विध्यातव्यस्तदा लघुः ।
शाम्यन्ति खिला दोषाः, शमिते तत्र तत्त्वतः ॥ २७९ ॥
रागद्वेषादिकं साधोः, सङ्गाभावे विनश्यति ।
कारणाभावतः कार्यं किं कुत्राप्यवतिष्ठते ।। २७२ ।।
अर्थ - परिग्रह का अभाव हो जाने पर साधु के राग-द्वेष भी विनष्ट हो जाते हैं, क्या कारण के अभाव में भी कहीं कार्य होता देखा गया है ? || २७२ ॥