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मरणकण्डिका - ९९
उपर्युक्त आधार क्रम के अतिरिक्त अन्य-अन्य प्रकार द्रव्यं, क्षेत्रं, सुधी: कालं, धातुं ज्ञात्वा तपस्यति।
तथा क्षुभ्यन्ति नो जातु, वात-पित्त-कफा यथा ॥२६४॥ अर्थ - बुद्धिशाली साधु द्रव्य, क्षेत्र, काल और अपने शरीर की प्रकृति को जान कर उस प्रकार तप करते हैं जिस प्रकार के तप से उनसे वात, पित्त, कफ आदि दोष कभी क्षुभित न हों ॥२६४ ।।
प्रश्न - क्षपक को द्रव्य, क्षेत्र एवं काल आदि का ज्ञान कैसे करना चाहिए, इनके क्या- कैसे भेद हैं?
उत्तर - इस प्रकरण में द्रव्य का अर्थ आहार से है। आहार अनेक प्रकार का होता है। यथा-शाक बहुल-जिस आहार में शाक अधिक है, रस बहुल-जिसमें घी, दूध, नमक, शक्कर आदि अधिक हैं,कुल्मासप्राय-जिस आहार में कुलथी आदि धान्य अधिक हैं, सेम के बीज एवं कच्चे चने आदि से मिला हुआ गहार या इन पदार्थों से और शाक. व्यंजन से रहित आहार, केवल भात-रोटी का आहार, निर्विकृति आहार अर्थात् जिन पदार्थों के सम्मिश्रण से भोजन में स्वाद उत्पन्न होता है ऐसे जीरा, धनिया, मिर्च आदि, सागादि, रसादि तथा चटनी आदि से रहित आहार और आचाम्ल या कांजी अर्थात् भात या मांड बहुल आहार। क्षेत्र भी अनेक प्रकार का है। यथा- अनूप क्षेत्र-जलबहुल क्षेत्र । जांगल-जहाँ दो इन्द्रिय आदि त्रस जीवों की उत्पत्ति अधिक होती है किन्तु जल कम होता है ऐसा क्षेत्र या देश आदि। वर्षाऋतु, शीतऋतु और ग्रीष्मऋतु आदि के भेद से काल भी अनेक प्रकार का होता है।
प्रकृति-किसी साधु की प्रकृति कफ प्रधान, किसी की पित्त प्रधान और किसी की वायु प्रधान प्रकृति होती है। कोई साधु देहबली किन्तु धैर्यहीन होते हैं, कोई देह से दुर्बल किन्तु धैर्यशाली होते हैं, कोई दोनों से बली और कोई दोनों बलों से हीन होते हैं।
साधु धीर-वीर हो, कफ आदि दोषों से रहित हो, क्षेत्र अनूप अर्थात् जलबहुल या समशीतोष्ण हो, वर्षाकाल हो तो महा उत्कृष्ट अर्थात् मास, दो मास के उपवास आदि भी निराकुलता पूर्वक हो सकते हैं। इसी प्रकार द्रव्य, क्षेत्रादि की अनुकूलता देखकर बाह्यतपों में निराकुलता पूर्वक प्रवृत्त होना चाहिए।
अभ्यन्तर सल्लेखना बाह्य अर्थात् शरीर सल्लेखना के साथ अभ्यन्तर सल्लेखना का सम्बन्ध
इत्थं सल्लेखना-मार्ग, कुर्वाणेनाप्यनेकधा।
नैव त्याज्यात्म-संशुद्धिः, क्षपकेण पटीयसा ॥२६५ ।। अर्थ - इस प्रकार अनेक प्रकार की तपविधि द्वारा काय सल्लेखना करते हुए भी चतुर क्षपक अपने आत्मपरिणामों की विशुद्धि को एक क्षण के लिए भी न छोड़े॥२६५ ॥
___ आत्मशुद्धि के अभाव में दोष भावशुद्ध्या विनोत्कृष्टमपि ये कुर्वते तपः। बहिर्लेश्या न सा तेषां, शुद्धिर्भवति केवला ॥२६६ ॥