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मरणकण्डिका - ८२
मेरे परिणामों पर अवलम्बित बन्ध या मोक्ष ही मेरे हैं, अतः इस संघ से भी मुझे क्या ? इससे राग करना भी उचित नहीं है।
मेरा यह शरीर भी अकिञ्चितकर है। यह स्वयं कुछ नहीं कर सकता, कर्मों के आश्रय से ही यह कार्यकारी दिखाई दे रहा है। अन्य जीव और अजीव पदार्थ मेरा उपकार करते हैं अथवा अनुपकार करते हैं, ऐसा संकल्प ही राग-द्वेष का जनक है, अतः इस संकल्प को हृदय से निकाल कर सतत शुद्धात्मा के चिन्तन का अभ्यास करना योग्य है। 'मेरा आत्मस्वरूप असहाय है' ऐसे अनुभव की वृद्धि के लिए ही मुझे सतत प्रयत्न करना चाहिए, इसी में मेरा हित निहित है।
इस एकत्व भावना के सतत अभ्यास से किसी भी पदार्थ में मन आसक्त नहीं होता, जिससे वैराग्य वृद्धिंगत होता है । वैराग्य से संसार के बीजभूत परिग्रह का त्याग होता है, परिग्रहत्याग से उत्कृष्ट चारित्र होता है और यह उत्कृष्ट चारित्र सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट कर देता है। यह सब एकत्व भावना का ही गुण है। इसी एकत्व भावना के बल से जिनकल्पी साधु मोहरहित होते हैं। यथा
स्वसुर्विधर्मतां दृष्ट्वा जिनकल्पीय संयतः । एकत्वभावनाभ्यासो, न मुह्यति कदाचन ॥ २०७ ॥
॥ इति एकत्वं ॥
अर्थ - जिस पर अयोग्य आचरण हो रहा था ऐसी अपनी बहिन पर भी जैसे जिनकल्पी नागदत्त मुनिराज एकत्व भावना के बल से मोहयुक्त नहीं हुए वैसे ही क्षपक भी मोह को कदापि प्राप्त नहीं होता ॥ २०७ ॥ * जिनकल्पी नागदत्त मुनिराज की कथा
उज्जयिनी के राजा नागधर्म और उसकी प्रिया नागदत्ता के नागदत्त नाम का एक पुत्र था। वह सर्पों के साथ क्रीड़ा करने में अत्यधिक चतुर था। उसके मित्र एक देव ने गारुड़िक का वेष धारण कर जो प्रक्रिया की उसके निमित्त नागदत्त को वैराग्य हो गया। उन्होंने जिनदीक्षा ग्रहण कर घोर तपश्चरण किया जिससे वे दिनप्रतिदिन चारित्र को निर्मल करते हुए जिनकल्पी हो गये। जिनेन्द्र भगवान सदृश वे एकाकी विहार करने लगे। तीर्थयात्रा को जाते हुए एक दिन वे एक वन में पहुँच गये, वहाँ चोरों का अड्डा था। 'यह साधु हमारा भेद अन्य लोगों को कह देगा' ऐसा मानकर चोरों ने उन्हें पकड़ लिया और त्रास देने लगे, यह देख चोरों के सरदार सूरदत्त ने कहा कि "आप लोगों ने इन्हें क्यों पकड़ा ? ये तो बड़े सीधे और सरल स्वभावी हैं। ये किसी पर राग-द्वेष नहीं करते, ये कोई भी ऐसी बात नहीं करते जिससे किसी को कष्ट हो, अतः आपकी शंका निर्मूल है, आप इन्हें शीघ्र छोड़ दो।" प्रधान की आज्ञा से चोरों ने उन्हें छोड़ दिया और वे आगे विहार कर गये ।
उसी समय नागदत्त की माँ अपनी यौवनवती पुत्री को तथा उसके दहेज में देने हेतु विपुल धनराशि लेकर परिजनों के साथ कौशाम्बी नगरी जारही थी। उसे मार्ग में अपने पुत्र नागदत्त मुनि के दर्शन हुए। उसने भक्तिभाव से नमस्कार कर पूछा कि प्रभो ! आगे मार्ग में कोई भय तो नहीं है? शत्रु-मित्र में समदृष्टि रखने वाले मुनिराज ने कोई उत्तर नहीं दिया और वे मौनपूर्वक वहाँ से आगे चले गये। आगे जानेवाली नागदत्ता को चोरों ने पकड़