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मरणकण्डिका - ८१
से कर्ण छेदने रूप पीड़ा से, इन्द्र के अन्त:पुर की देवांगनाओं के प्रचुर विलास को देख कर उत्पन्न हुई उन देवांगनाओं की अभिलाषारूपी आग सन्ताप से और छ:मास आयु के अवशेष रहने का ज्ञान हो जाने से होनेवाले महान् दुख भोगे हैं।
इस प्रकार मैंने अनादि काल से अद्यावधि दुखों का ही अनुभव किया है तब उपसर्गजन्य दुख आने पर विषाद कैसा? विषाद करने से दुख व्यक्ति को छोड़ता नहीं है, दुख का कारण कर्म है, जब तक कर्मों का संयोग है, तब तक दुख आवेगा, इसे धैर्य पूर्वक सहन करने में ही कल्याण है। इस शरीर से मेरा अनादिकालीन परिचय है। परिचितों से भय कैसा? ऐसे शरीर मैंने अनन्त बार धारण किये हैं और देखे हैं, इत्यादि । यह सब सत्त्व भावना है। इस प्रकार के चिन्तन से ही सत्त्वभावना दृढ़ होती है।
एकत्व भावना कामे भोगे गणे देहे, विवृद्धकत्वभावनः ।
करोति नि:स्पृहीभूय, साधुर्धर्ममनुत्तरम् ।।२०६ ॥ अर्थ - काम में, भोग में, संघ में और शरीर में जिसने एकत्व भावना को वृद्धिंगत किया है वह साधु निस्पृह होकर उत्कृष्ट धर्म का प्रतिपालन करता है ।।२०६ ।।
प्रश्न – एकत्वभावना का क्या स्वरूप है ?
उत्तर - मैं अनादि काल से जन्म, जरा और मरण आदि के भयंकर दुखों का उपभोग कर रहा हूँ किन्तु मेरे दुख में अद्यावधि किसी ने भी हिस्सा नहीं बँटाया, मैं अकेला ही इन दुखों का अनुभव कर रहा हूँ। लोकमान्यता ऐसी है कि जो अपने दुख का विभाग कर सुख देता है वह स्वजन है और जो मेरे दुख में हाथ नहीं बंटाता वह परजन है किन्तु यदि मेरे सातावेदनीय कर्म का उदय नहीं है तो दूसरे मुझे सुखी करने में कदापि समर्थ नहीं हो सकते और यदि साता का उदय है तो शत्रु भी सुखदायी हो जावेंगे, अतः ये स्वजन हैं, ये परजन हैं, ऐसा विभाग करना व्यर्थ है। मैं सर्वावस्थाओं में एकाकी हूँ। न कोई मेरा है और न मैं किसी का हूँ; इत्यादि रूप से चिन्तन करना एकत्व भावना है।
प्रश्न - काम, भोग, सुख, संघ और शरीर आदि में आसक्ति न हो, इसके लिए कैसा चिन्तन करना चाहिए?
उत्तर - स्वेच्छा से जिन पदार्थों का उपभोग कर सकते हैं ऐसे पदार्थों को कामभोग कहते हैं। जैसे आहार, पान, वस्त्र, शय्या, स्त्री आदि । 'ये पदार्थ ही सुखदायक हैं' मैंने सदा ऐसा ही संकल्प किया है किन्तु यह मेरी मिथ्या कल्पना है। मेरा इनमें राग करना उचित नहीं है, इन पदार्थों से मेरी आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं है, मैं तो एकाकी हूँ। ऐसा अभ्यास करना चाहिए।
बाह्य पदार्थों के सम्बन्ध से मन में जो प्रीति या आह्लाद होता है उसे सुख कहते हैं, किन्तु ये पदार्थ तो उत्तरोत्तर लोभ की वृद्धि करते हैं और लोभ से मन व्याकुल होता है, अतः सिद्ध होता है कि ये पदार्थ चित्त को स्वस्थ करने में समर्थ नहीं हैं। रत्नत्रय ही मेरी सर्वोपयोगी सम्पत्ति है। इस भोग-सम्पत्ति से मेरा कोई प्रयोजन सिद्ध होनेवाला नहीं है।