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मरणकण्डिका - ९१
अर्थ - शून्यघर, शिलाओं से बने घर या पर्वतों की गुफाएँ, वृक्षों के मूल तथा अन्य गुफाएँ, आदि शब्द से शिक्षागृह, देवमन्दिर एवं व्यापारार्थ बनाये गये निवासस्थान आदि जो ध्यान और स्वाध्याय की वृद्धि में सहायक हों, वे सब विविक्त वसतिकाएँ कही जाती हैं।।२४० ।।
अविविक्त वसतिका के दोष अयोग्यजन-संसर्ग-राटी-कलकलादयः ।
अविविक्तस्थितेः सन्ति, समाधान-निषूदिनः ॥२४१॥ अर्थ - अयोग्य एवं असंयत लोगों का संसर्ग, राड़ अर्थात् शब्दों की बहुलता, कलकल शब्द एवं यह वसति मेरी है, तेरी नहीं है इत्यादि प्रकार के कलह आदि दोष अविविक्त वसतिका में निवास करने वाले साधु की शान्ति को नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं ।।२४१॥
विविक्त तमतिका के गुण प्रारभाराकृत्रिमाराम-देवतादि-गृहादिषु। जायते वसतः साधोः समाधानमखण्डितम् ।।२४२॥ एवमैकाग्यमापन्नो, ध्यानैः शुद्ध-प्रवृत्तिभिः।
समितः पञ्चभिर्गुप्तस्त्रिभिरस्ति हितोद्यतः ।।२४३ ।। अर्थ - प्राग्भार (पर्वतशिखर), अकृत्रिम बाग-बगीचा एवं देवमन्दिर आदि में निवास करनेवाले साधु की शान्ति अखण्ड बनी रहती है।।२४२।।
विविक्त वसतिका में रहने से शुद्ध प्रवृत्ति द्वारा ध्यान में एकाग्रता आ जाती है, पाँचों समितियों का पालन भली प्रकार हो जाता है और तीनों गुप्तियाँ सिद्ध हो जाती हैं। इस प्रकार वह साधु अपने हित में उद्यमशील हो जाता है ।।२४३ ।।
संवरपूर्वक निर्जरा की प्रशंसा तन्निर्जरयते कर्म-संवृतोऽन्तर्मुहूर्ततः ।
षष्ठाष्टमादिभिः साधुस्तपसा यदसंवृतः ।।२४४॥ अर्थ - असंवृत अर्थात् अशुभयोग का निरोध न करनेवाला साधु षष्ठोपवास, अष्टोपवास अर्थात् बेला, तेला आदि तप द्वारा जितने कर्म नष्ट करता है उतना कर्म संवृत हुआ अर्थात् गुप्नियों का पालन करने वाला साधु अन्तर्मुहूर्त में नष्ट कर देता है ।।२४४ ।।
एवं भावयमानः संस्तपसा स्थिरमानसः ।
अप्रशस्तं परीणाम, नाशयश्चेष्टते तराम्॥२४५ ।। अर्थ - इस प्रकार सम्यक्तप से मन को स्थिर कर लेनेवाला साधु उत्कट तप की भावना करता हुआ अशुभ परिणामों को नष्ट कर देता है और मुक्ति के साधनभूत चारित्र में सतत प्रयत्नशील रहता है ।।२४५ ।।