________________
मरणकण्डिका - ८७
रस-परित्याग तप गुड-तैल-दधि-क्षीर-सर्पिषां वर्जने सति ।
देशतः सर्वतः ज्ञेयं, तपः साधो रसोज्झनम् ।।२२२ ॥ अर्थ - साधु के द्वारा गुड़, तेल, दधि, दूध और घृत आदि रसों का पूर्णरूप से या एक-दो आदि का त्याग करना रसत्याग तप कहलाता है ।।२२२ ॥
अशनं नीरसं शुद्धं, शुष्कमस्वादु-शीतलम् ।
भुञ्जते सम-भावन, साधवो निर्जितेन्द्रियाः॥२२३॥ अर्थ - जिन्होंने इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है वे साधुजन भोजन नीरस हो, शुद्ध हो, अर्थात् अन्य शाक दाल आदि के मिश्रण से रहित हो, रुक्ष अर्थात् घी, तेल आदि से रहित हो, स्वाद रहित हो या ठण्डा हो उसे समता भाव से ग्रहण कर लेते हैं ।।२२३ ।।
येऽन्येऽपि केचनाहारा, वृष्या विकृति-कारिणः ।
ते सर्वे शक्तितस्त्याज्या, योगिना रस-वर्जिना ॥२२४ ।। अर्थ - रसत्याग तप के इच्छुक योगी को गरिष्ट आहार, परिणामों में विकृति उत्पन्न करनेवाला आहार अथवा अन्य भी कोई ऐसा आहार हो, इन सब का अपनी शक्ति के अनुसार त्याग कर देना चाहिए ।।२२४ ।।
सन्तोषो भावित: सम्यग-ब्रह्मचर्य प्रपालितम्।।
दर्शितं स्वस्य वैराग्यं, कुर्वाणेन रसोज्झनम् ।।२२५ ।। अर्थ - रस परित्याग करनेवाला साधु सन्तोष प्राप्त कर लेता है, भली प्रकार ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर लेता है और अपने वैराग्य की वृद्धि करता रहता है ।।२२५ ।।
वृत्ति परिसंख्यान तप गृह्णाति प्रासुकां भिक्षा, गत्वा प्रत्यागतो यतः।
शम्बुकावर्त-गोमूत्र-पुटेषु शलभायनः ।।२२६ ।। अर्थ - (आहारचर्या को जाते समय साधुजन विविध प्रकार के नियम लेते हैं उसे व्रतपरिसंख्यान कहते हैं। यथा-) जिस मार्ग से पहले गया उसी मार्ग से लौटते हुए यदि प्रासुक आहार प्राप्त होगा तो ग्रहण करूँगा ऐसी प्रतिज्ञा करना 'गतप्रत्यागत' है। शंख के आवों के सदृश ग्राम के भीतर आवर्ताकार भ्रमण करके बाहर निकलते हुए यदि शुद्ध आहार मिलेगा तो ग्रहण करूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा करना ‘शम्बुकावर्त है। चलती हुई गाय जो मूत्र करती है और उसका जो आकार बनता है वैसे ही मोड़ेदार भ्रमण करते हुए आहार मिलेगा तो ग्रहण करूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा करना 'गोमूत्रिका' है। वस्त्र एवं स्वर्णादि रखने की ढक्कन युक्त चार कोणवाली बाँस की बनी पेटी के अनुरूप चतुष्कोण भ्रमण करते हुए आहार मिलेगा तो ग्रहण करूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा करना 'पुट' है, बाण सदृश सीधी गली में जाते हुए आहार मिलेगा तो ग्रहण करूँगा ऐसी प्रतिज्ञा करना 'इषु' है तथा पतंगवत् अर्थात् एक निश्चित अमुक गृह में आहार मिलेगा तो ग्रहण करूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा करना शलभायन' है ।।२२६॥