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मरणकण्डिका - ८८
पाटकावसथ-द्वार-दातृ-देयादि-गोचरम् । संकल्पं विविधं कृत्वा, वृत्तिसंख्यापरो यतिः ॥ २२७ ॥
अर्थ
फाटक में प्रवेश करते ही आहार मिलेगा तो ग्रहण करूँगा, घर में प्रवेश नहीं करूँगा; ऐसा संकल्प करना 'पाटकावसथ' है । अमुक द्वार से प्रवेश करते आहार मिलेगा तो ग्रहण करूँगा, एक दाता या दो दाताओं से या अमुकदाता से ही प्राप्त आहार ग्रहण करूँगा, दाता दाल देगा या मोठ देगा या अमुक पदार्थ देगा तो ही आहार ग्रहण करूँगा, ऐसा संकल्प करना तथा आदि शब्द से अन्य प्रतिज्ञाएँ भी ग्राह्य हैं। यथा-दाता द्वारा दिये जानेवाले आहार में एक ग्रास ही ग्रहण करूँगा या दो ग्रास ही ग्रहण करूँगा अथवा पेय पदार्थ ही या पिण्डरूप पदार्थ ही ग्रहण करूँगा। लासी मिलेगी तो ही ग्रहण करूँगा, चना या गेहूँ या मसूर मात्र ही ग्रहण करूँगा, या शाक से मिश्रित या जिसके चारों ओर दाल या शाक हो और बीच में भात हो, या चारों ओर व्यंजन और मध्य में अन्न हो, या व्यञ्जनों के मध्य पुष्पावली के सदृश भात रखा गया हो, या बिना शाक-दाल आदि मिलावट के शुद्ध भात मिले, या जो हाथ में लिपट जावे, या जो पदार्थ हाथ से लिप्त न हों, या चावल के दानों सहित पेय हो या चावल के दानों से रहित मांड सदृश पेय हो, या स्वर्ण, था चाँदी, या काँसी, या मिट्टी का ही पात्र हो, या दाता पुरुष ही हो, या स्त्री हो, या दो या तीन स्त्रियाँ हों या पुरुषों के द्वारा ही दिया हुआ हो, या स्त्रीपुरुष दोनों हो तो आहार ग्रहण करूंगा अन्यथा वसतिका में लौट कर आ जाऊँगा । इस प्रकार से अन्य अन्य भी अभिग्रह अपनी शक्ति के अनुसार संकल्पित करना व्रतपरिसंख्यान तप है ॥ २२७ ॥
व्रत परिसंख्यान तप का फल
लूना तृष्णा-लतारूढा, चित्रसंकल्प पल्लवाः । कुर्वता वृत्तिसंख्यानं परेषां दुश्चरं तपः || २२८ ॥
अर्थ - अन्यजनों को दुष्कर ऐसे इस वृत्तिसंख्यान तप को धारण करनेवाले साधुजनों द्वारा विचित्रविचित्र संकल्प-विकल्प रूप पत्तेवाली तृष्णारूपी लता को काट कर फेंक दिया जाता है अर्थात् यह तप जिह्वा की लालसा को समाप्त कर देता है ।। २२८ ॥
कायक्लेश तप
तिर्यगर्कमुपर्यर्कमन्वर्कं प्रतिभास्करम् ।
याति ग्रामान्तरं गत्वा, प्रत्यागच्छति वा यतिः ॥ २२९ ॥
अर्थ - कड़ी धूप में सूर्य को आजू-बाजू में से किसी एक ओर रख कर गमन करना 'तिर्यगर्क' है। सूर्य के ऊपर आ जाने पर गमन करना उपर्युर्क है। पूर्व दिशा से पश्चिम की ओर विहार करना अनु अर्क है और पश्चिम दिशा से पूर्व की ओर विहार करना 'प्रतिभास्कर' है तथा आहार आदि के लिए दूसरे ग्राम जाकर बिना विश्राम तत्काल वापिस आना, यह सब साधु का कायक्लेश तप है || २२९ ।।
सावष्टम्भं तनूत्सर्गं, ससंक्रममसंक्रमम् । गृद्धोड्डीनमवस्थानं, समपादैक - पादकम् ॥ २३० ॥