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मरणकण्डिका - ८६
उत्तर - शाली धान्य के एक हजार चावलों का जो भात बनता है वह सब भात एक ग्रास प्रमाण कहा जाता है। ऐसे बत्तीस एवं अट्ठाईस ग्रास का आहार क्रमशः पुरुष और महिला का कहा गया है। प्रमाण से कम आहार प्रहा कराना, यह अनौदर्य तनमाण है, अनु: यहाँ आहार का प्रमाण निर्धारित किया गया है किन्त यह प्रमाण प्रकृतिस्थ पुरुष और महिला का है, सभी स्त्री-पुरुषों के ग्रास और आहार का प्रमाण समान नहीं होता।
प्रश्न - किसी व्यक्ति की उदर पूर्ति पच्चीस ग्रासों से हो जाती है। बत्तीस ग्रासों की अपेक्षा पच्चीस ग्रास कम हैं, तब क्या उसका वह आहार भी अवमौदर्य तप कहा जायगा ?
उत्तर - नहीं, यहाँ ‘अवम' का अर्थ न्यून और उदर' का अर्थ पेट है, अत: स्वाभाविक आहार से न्यून आहार उदर को देना ही अवमौदर्य तप का लक्षण होगा । अवमौदर्य तप के प्रकरण में बत्तीस और अट्ठाईस ग्रासों का ग्रहण नहीं किया जायेगा क्योंकि सभी पुरुषों का आहार का प्रमाण समान नहीं होता।
(धवल पुस्तक १३ पृष्ठ २६) अवमौदर्य तप का लक्षण और उससे होने वाले लाभ तस्मादेकोत्तर-श्रेण्या, कवलः शिष्यते परः।
मुच्यते यत्र तदिदमवमौदर्यमुच्यते ॥२१८॥ अर्थ - पुरुष और स्त्री के (वर्तमानकालीन स्वाभाविक) आहार में से एक दो आदि ग्रास की हानि क्रम से जब तक एक ग्रास मात्र भी शेष होता है वह सब अवमौदर्य तप कहलाता है ॥२१८ ।।
निद्राजय; समाधान, स्वाध्यायः संयमः परः।
हृषीक-निर्जय: साधोरवमोदर्यतो गुणा: ।।२१९ ।। अर्थ - अवमौदर्य तप करने वाले साधु निद्रा पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, उन्हें जितना और जैसा आहार प्राप्त होता है उसी में सन्तुष्टता हो जाती है, स्वाध्याय में प्रमाद नहीं आता, संयम की पालना भली प्रकार हो जाती है और इन्द्रियविजय गुण की भी प्राप्ति हो जाती है ।।२१९ ॥
चार महाविकृतियों के नाम एवं उनके दोष चतस्रो गृध्नुतासक्ति-दर्पासंयमकारिणीः।
नवनीत-सुरा-मांस-मध्वाख्या विकृतिर्विदुः ॥२२० ।। अर्थ - मक्खन, मद्य, मांस और मधु ये चार महाविकृतियाँ कही गई हैं। ये चारों पदार्थ बार-बार अभिलाषा उत्पन्न करके गृद्धता बढ़ाते हैं, आसक्ति वृद्धिंगत करते हैं, इन्द्रियों को उन्मत्त करते हैं और इन्द्रियअसंयम तथा प्राणी-असंयम को बल प्रदान करते हैं ।।२२० ।। ।
महाविकार-कारिण्यो, भव्येन भव-भीरुणा।
अिनाज्ञाकाङ्क्षिणा स्याज्या, यावज्जीवं पुरैव ताः ॥२२१॥ अर्थ - जिनाज्ञा-पालन की इच्छा रखनेवाले, पापभीरु भव्य जीव सल्लेखना ग्रहण के पूर्व ही इन चारों महाविकृतियों का त्याग कर देते हैं ।।२२१।।