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मरणकण्डिका -५८
विनयं न विना ज्ञानं, दर्शनं चरितं तपः।
कारणेन विना कार्य, जायते कुत्र कथ्यताम् ।।१३७ ।। अर्थ - कारण बिना कार्य होना क्या सम्भव है? नहीं। जैसे कारण बिना कार्य नहीं होता उसी प्रकार विनय के बिना ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ये कदापि नहीं हो सकते । अतः साधुओं को विनयगुण अवश्य धारण करना चाहिए ||१३७॥
समस्ताः सम्पदः सद्यो, विधाय वशवर्तिनीः। चिन्तामणिरिवाभीष्टं, विनयः कुरुते न किम् ।।१३८ ।
इति विनयः॥ अर्थ - इस प्रकार समस्त सम्पदाओं को शीघ्र ही अपने वश में करनेवाले चिन्तामणि रत्न के समान इस अभीष्ट विनय को क्यों न किया जाय? अर्थात् विनय अवश्य ही करना चाहिए।१३८ ।
।। इस प्रकार विनय गुण का कथन पूर्ण हुआ ।
५. समाधि अधिकार समाहित चित्त का लक्षण और उसका फल समाहितं मनो यस्य, वश्यं त्यक्ताशुभाम्रवम्।
उह्याते तेन चारित्रमश्रान्तेनापदूषणम् ।।१३९ ।। अर्थ - जिसका मन अशुभास्रव के प्रवाह से रहित है और वशवर्ती है, वह मन समाहित कहा जाता है। वह समाहित मन बिना थके निरतिचार चारित्र के भार को धारण करता है ।।१३९ ।।
तितवाविव पानीयं, चारित्रं चल-चेतसः ।
वपुषा वचसा सम्यक्, कुर्वतोऽपि पलायते ॥१४०॥ अर्थ - कोई साधु काय से और वचन से शास्त्रानुसार सम्यक् आचरण कर रहा है किन्तु यदि उसका चित्त चंचल है तो उसका चारित्र चलनी में रखे हुए जल के सदृश गल जाता है अर्थात् पलायमान हो जाता है ।।१४०॥
प्रश्न - समाहित मन और चित्त किसे कहते हैं? यह वशवती कैसे होता है और उस वशवर्तिता का ज्ञान कैसे होता है?
उत्तर - जिसका मन अशुभ परिणामों के प्रवाह को रोक देता है और जहाँ उसे लगाया जाय वहीं ठहरा रहता है वह मन समाहित कहा जाता है। मन को ही चित्त कहते हैं। जैसे नट एवं नटी-नर्तकी आदि के हावभावों के उतार-चढ़ाव पूर्वक किया गया नृत्यादि कार्य देखकर उसी के अनुरूप प्रेम, कोप, भय एवं दुखादि रूप परिणाम दर्शकों की आत्मा में उत्पन्न हो जाते हैं और उस समय उनके शरीर के रोमांच, मुख के विकास, मन्द