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मरणकाण्डका - ६६
प्रश्न - सल्लेखना-रत साधु को तो आहार आदि का त्याग ही करना है फिर आहार की सुलभता पूर्ण क्षेत्र सल्लेखना के योग्य क्यों कहा गया है?
उत्तर - सल्लेखना-रत साधु आहार का त्याग अवश्य करते हैं किन्तु वह त्याग शनैःशनैः क्रम-पूर्वक ही होता है। इसके अतिरिक्त सल्लेखनारत साधु की सेवा में जो परिचारक साधुजन एवं ब्रह्मचारी आदि होते हैं उन्हें यदि सुलभतापूर्वक शुद्ध आहार प्राप्त न होगा तो सल्लेखनारत साधु की वैयावृत्य में व्यवधान पड़ेगा, अत: साधु को सल्लेखना वहीं ग्रहण करना चाहिए जहाँ के श्रावक श्रद्धावान् और विवेकी हों, तथा आहारदान आदि षड़ावश्यकों का निष्ठापूर्वक पालन करते हों। देश-देशान्तरों में विहार करने से ऐसे स्थानों का अन्वेषण सहज ही हो जाता है।
अनियतविहारी अप्रतिबद्ध होता है श्रावके नगरे ग्रामे, वसतावुपधौ गणे। सर्वत्राप्रतिबद्धोऽस्ति, योगी देशान्तरातिथिः॥१६१ ॥
॥ इति अनियतविहारः॥ अर्थ - देश-देशान्तर का अतिथि होने वाला साधु श्रावकजनों में, नगर में, ग्राम में, वसतिका में, उपकरणों में और संघ में सर्वत्र ही अप्रतिबद्ध होता है। अर्थात् 'यह मेरा है' इस प्रकार के संकल्प से रहित होता है ।।१६१॥
।। इस प्रकार अनियत विहार नाम का छठा अधिकार पूर्ण हुआ।
७. परिणाम अधिकार
आत्महित चिन्तन पर्यायरक्षितो दीर्घ, वितीर्णा वाचना मया।
शिष्या निष्पादिता; श्रेयो, विधातुमधुनोचितम् ।।१६२।। अर्थ - मैंने दीर्घकाल तक ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपरूप पर्याय का पालन किया है, वाचनाएँ भी दी हैं, अर्थात् आगमानुसार निर्दोष ग्रन्थ और उनके अर्थ का दान भी दिया है तथा शिष्यों को भी व्युत्पन्न किया है। अब मुझे अपना हित करना उचित है ।।१६२।।
प्रश्न - परिणाम शब्द का क्या अर्थ है?
उत्तर - 'अभी तक मेरा समय स्व-पर कल्याण में व्यतीत हुआ है, किन्तु अब आज से मुझे अपना ही हित करना चाहिए' इस प्रकार के मनोभाव को यहाँ परिणाम शब्द से कहा गया है।