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मरणकण्डिका - ७८
गुमियों को धारण करता है, सर्व परिग्रह की आसक्ति से रहित है और संसार से भयभीत है वह छठी भावना में प्रवृत्ति करने योग्य होता है।।१९४॥
छठी ग्राह्य भावना के भेद असंक्लिष्ट-तप:-शास्त्र-सत्यैकत्व धृति-श्रिता। 'पञ्चधा भाधना भात, भष प्रमा-भोरणा ॥१९५॥ अर्थ - संक्लेश रहित भावनाएँ पाँच प्रकार की हैं - तपो भावना, ज्ञान भावना, सत्त्व भावना, एकत्व भावना और धृति भावना | संसार से भयभीत साधुओं को यही भावनाएँ भानी चाहिए ॥१९५॥
तपो भावना समाधि की साधक है। दान्तान्यक्षाणि गच्छन्ति, तपो भावनया वशं ।
विधानेनेन्द्रियाचार्य:, समाधाने प्रवर्तते ।।१९६ ।। अर्थ - तपो भावना से दमित हुई इन्द्रियाँ तपस्वी के वश हो जाती हैं। तप भावनारूप विधान के द्वारा साधु इन्द्रियाचार्य अर्थात् इन्द्रियों को शिक्षा देनेवाला हो जाता है और वह रत्नत्रय में प्रवृत्त हो जाता है।।१९६ ।।
तपो भावना बिना सल्ल्लेखना सम्भव नहीं है इन्द्रियार्थ-सुखासक्तः, परीषह-पराजितः ।
जीवोऽकृतक्रियाः क्लीवो, मुह्यत्याराधना-विधौ ॥१९७॥ अर्थ - जो साधु इन्द्रियों के विषयसुख में आसक्त है, क्षुधा-तृषा आदि परीषहों से पराजित हो चुका है और साधु के करने योग्य तपश्चरण आदि क्रियाओं को नहीं कर पाता है वह नपुंसक अर्थात् दीन सदृश होता हुआ आराधना की आराधन-विधि में विमोहित सदृश हो जाता है। अर्थात् सल्लेखना की साधना में समर्थ नहीं हो पाता ॥१९७॥
लालितः सर्वदा सौख्यैरकारित-परिक्रियः। कार्यकारी यथा नाश्वो, बाह्यमानो रणामाणे ॥१९८ ।। अकारित तपो योग्यश्चिरं विषय-मूर्छितः।
न जीवो मृत्युकालेऽस्ति, परीषह-सहस्तथा ॥१९९।। अर्थ - शब्दों या संकेतों को ध्यान में रखना, संकेतानुसार चलना, वेग से घूमना एवं कूदने आदि की शिक्षा नहीं दी गई है अर्थात् जिसे इस प्रकार का अभ्यास नहीं कराया गया है, अपितु चिरकाल तक सुखपूर्वक लालन-पालन कर उसे पुष्ट किया गया है ऐसा घोड़ा युद्ध-भूमि में ले जाने पर शत्रु को जीतने में अपने स्वामी की सहायता करना तो दूर किन्तु भय से भाग कर स्वामी का कार्य नष्ट कर देता है।।१९८ ।।
उसी प्रकार जिसने पूर्व काल में तप नहीं किया अपितु सदा विषयसुखों में आसक्त रहा वह साधु मरणसमय में परीषह आदि की वेदना को सहन नहीं कर सकता ॥१९९।।